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________________ व्यवहार सूत्र - सप्तम उद्देशक . . . १२२ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ भगवन् ! मैं अमुक आर्या के साथ अमुक कारण से परोक्ष रूप में पारस्परिक व्यवहार बन्द कर उसे विसांभोगिका करती हूँ। ___ यदि वह (जिसे विसांभोगिका किया जा रहा हो) परिताप - पश्चात्ताप करे तो परोक्ष रूप में उसकी पारस्परिक व्यवहार संबद्धता बन्द कर उसे विसांभोगिका करना नहीं कल्पता। यदि वह परिताप - पश्चात्ताप न करे तो परोक्ष रूप में उसकी पारस्परिक व्यवहार-संबद्धता बन्द कर उसे विसांभोगिका करना कल्पता है। विवेचन - इन सूत्रों में संभोग-विसंभोग - साधुओं एवं. साध्वियों के पारस्परिक उपधि आदि आवश्यक वस्तुओं के लेन-देन आदि से संबद्ध दैनन्दिन व्यवहार के विषय में चर्चा हुई है। यहाँ संबंध विच्छेद करने के संबंध में भिक्षु शब्द का प्रयोग हुआ है, जो वस्तुतः आचार्य या उपाध्याय आदि किसी पदवीधर भिक्षु का सूचक है। क्योंकि वे ही किसी साधु या साध्वी का संबंध विच्छेद करने के अधिकारी होते हैं। .. यहाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष - दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। उसका आशय यह है कि किसी कारण या दोष वश किसी साधु या साध्वी को पारस्परिक व्यवहार से बहिष्कृत करना हो तो उस द्वारा की गई त्रुटि पर प्रत्यक्षतः विचार-विमर्श का अवसर रहे, यह अपेक्षित है। परोक्ष में यदि किसी का संबंध विच्छिन्न किया जाता हो तो, जिसे दोषी माना गया हो, उसे अपनी ओर से दोष के संबंध में स्पष्टीकरण का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। एक और महत्त्वपूर्ण बात यहाँ यह कही गई है कि यदि कोई साधु या साध्वी अपने द्वारा आचरित दोष के लिए परिताप - पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त करे तो उसकी सांभोगिकता, पारस्परिक व्यवहार संबंधता कायम रखने योग्य होती है। इससे साधक या साधिका को दोष परिमार्जन पूर्वक साधनामय निरवद्य पथ पर आगे बढ़ने का उज्वल, पवित्र, संयममय जीवन जीने का अवसर प्राप्त होता है। प्रव्रज्यादि-विषयक विधि-निषेध ... णो कप्पइ णिग्गंथाणं णिग्गंथिं अप्पणो अट्ठाए पव्वावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा (सिक्खावेत्तए वा) सेहावेत्तए वा उवट्ठावेत्तए वा संवसित्तए वा संभुंजित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उहिसित्तए वा धारेत्तए वा॥१८१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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