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________________ ११९ अन्य गण से आगत शबलाचार युक्त साध्वी को गण में लेने का विधि-निषेध kakkakkakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkarte को पूछे बिना, आचरित दोष पूर्ण स्थान की उससे आलोचना कराए बिना यावत् प्रायश्चित्त कराएं बिना उसके साथ साधर्मिकोचित पृच्छा करना, उसे वाचना देना, चारित्र में उपस्थापित करना, साधुजीवनोचित उपधि आदि वस्तुओं के लेने-देने आदि का पारस्परिक व्यवहार करना, साथ में रहना, स्वल्पकाल के लिए उसे दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना नहीं कल्पता। १७७. जो साधु और साध्वियाँ परस्पर उपधि आदि साधुजीवनीचित वस्तुओं के लेन-देन आदि पारस्परिक व्यवहार से संबद्ध हों, किसी अन्य गण से आई हुई क्षताचार, शबलाचार, भिन्नाचार एवं संक्लिष्टाचार युक्त साध्वी को वे स्वसंबद्ध साधुओं तथा साध्वियों को पूछकर उससे आचरित दोषपूर्ण स्थान की आलोचना कराकर यावत् प्रायश्चित्त कराकर उसके साथ साधर्मिकोचित पृच्छा करना, उसे वाचना देना, चारित्र में उपस्थापित करना, साधुजीवनोचित उपधि आदि वस्तुओं के लेन-देन आदि का पारस्परिक व्यवहार करना, साथ में रहना, स्वल्प काल के लिए उसे दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना कल्पता है। . १७८. जो साधु तथा साध्वियाँ परस्पर उपधि आदि साधुजीवनोचित वस्तुओं के लेन-देन आदि पारस्परिक व्यवहार से संबद्ध हों, किसी अन्य गण से आई हुई क्षताचार, शबलाचार, भिन्नाचार एवं संक्लिष्टाचार युक्त साध्वी को वे स्वसंबद्ध साधुओं तथा साध्वियों को पूछ कर या बिना पूछे उससे आचरित दोष पूर्ण स्थान की आलोचना यावत् प्रायश्चित्त कराकर उसके साथ साधर्मिकोचित पृच्छा करना, उसे वाचना देना, चारित्र में उपस्थापित करना, साधुजीवनोचित उपधि आदि वस्तुओं के लेन-देन आदि का पारस्परिक व्यवहार करना, साथ में रहना, स्वल्प काल के लिए उसे दिशा, अनुदिशा का निर्देशा करना, धारण करना कल्पता है। यदि गण की साध्वियाँ उस साध्वी को अपने साथ न रखना चाहें तो वह साध्वी स्वयं ही वापस उस गण में चली जाए, जिससे वह आई हो। विवेचन - जिस प्रकार छठे उद्देशक में सदोष आचार युक्त साध्वी के आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि द्वारा विशुद्धिकरण एवं साधुत्व में पुन: उपस्थापन का निरूपण हुआ है, उसी प्रकार यहाँ भी कुछ अपेक्षित भिन्नता के साथ वर्णन हुआ है। मूल आशय लगभग एक जैसा है। इन सूत्रों में प्रयुक्त संभोइया का संस्कृत रूप सांभोगिक है। सांभोगिक शब्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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