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व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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इसका सारांश यह है कि जैन श्रमणों की आचार-पद्धति बहुत सूक्ष्म है। वहाँ आन्तरिक भावना तथा बाह्य क्रिया दोनों की शुद्धता अपेक्षित है। बाह्य क्रिया में आन्तरिक भावना परिलक्षित होती है। भाव जितने उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र होंगे, बाहरी क्रियाओं में भी उतनी ही नियमितता, पवित्रता और समीचीनता रहेगी।
व्रताराधना और संयताचरण में जरा भी विपर्यास न हो पाए, इस ओर तत्परता सर्वथा आवश्यक है। यदि विपर्यास आशंकित हो तो उसका प्रायश्चित्त द्वारा परिशोधन एवं परिमार्जन अपरिहार्य है। इन सूत्रों से ये भाव व्यक्त होते हैं। ..
शैक्ष एवं रत्नाधिक का पारस्परिक व्यवहार दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तंजहा - सेहे य राइणिए य, तत्थ सेहतराए पलिच्छण्णे, राइणिए अपलिच्छण्णे, सेहतराएणं राइणिए उवसंपज्जियव्वे, भिक्खोववायं च दलयइ कप्पागं॥१२२॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तंजहा - सेहे य राइणिए य, तत्थ राइणिए पलिच्छण्णे, सेहतराए अपलिच्छण्णे, इच्छा राइणिए सेहतरागं उवसंपज्जई इच्छा णो उवसंपज्जइ, इच्छा भिक्खोववायं दलयंइ कप्पागं इच्छा णो दलयइ कप्पागं।।१२३॥
कठिन शब्दार्थ - सेहे - शैक्ष - अल्प दीक्षा-पर्याय युक्त, राइणिए - रत्नाधिक - . ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में - दीक्षा-पर्याय में अधिक या ज्येष्ठ,
पलिच्छण्णे - शिष्य परिवार युक्त, उवसंपजियव्वे - उपसंपदा में - निर्देशन में रहे, भिक्खोववायं - भिक्षा एवं उपपात या भिक्षोपपात - आहार, सन्निधि सेवन, विनय वैयावृत्य आदि, दलयइ - देता है - दे।
भावार्थ - १२२. दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ और कनिष्ठ - अल्पकाल दीक्षित - ऐसे दो साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, उनमें यदि अल्प दीक्षा पर्याय युक्त भिक्षु शिष्य परिवार संपन्न हो - अनेक शिष्य युक्त हो और ज्येष्ठ भिक्षु शिष्य परिवार संपन्न न हो तो वह दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ भिक्षु की उपसंपदा में रहे, उसके लिए आहार लाकर दे, उसका सान्निध्य प्राप्त करे - उसके प्रति विनयशील रहे, उसकी वैयावृत्य - सेवा-परिचर्या करे।
१२३. दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ और कनिष्ठ - अल्पकाल दीक्षित - ऐसे दो साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, उनमें दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ भिक्षु यदि शिष्य परिवार सम्पन्न हो
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