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व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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चारिका प्रविष्ट-निवृत्त भिक्षु-विषयक निरूपण चरियापविढे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा, सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि ओग्गहे॥११८॥ .
चरियापविटे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा, पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएजा, भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चं पि ओग्गहे अणुण्णवेयव्वे सिया, अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं णितियं णिच्छइयं वेउट्टियं, तओ पच्छा कायसंफासं।।११९॥
चरियाणियट्टे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेजा, सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि ओग्गहे॥१२०॥
चरियाणियट्टे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेजा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा, भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चं पि
ओग्गहे अणुण्णवेयव्वे सिया - अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं णितियं णिच्छइयं वेउट्टियं, तओ पच्छा कायसंफासं॥१२१॥ ..
कठिन शब्दार्थ - चरियापविढे - चारिका प्रविष्ट - स्थविरों की आज्ञा के बिना विहार आदि के लिए अन्यत्र गया हुआ, सच्चेव - सा चैव - और वही, ओग्गहस्स - अवग्रह, पुव्वाणुण्णवणा - पुर्वानुज्ञापना, चिट्ठइ - रहती है, अहालंदं - यथाकाल - कल्पानुगत कार्य, अवि - भी, पुणो - पुनः - फिर, छेयपरिहारस्स - दीक्षा-छेद एवं परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त, उवट्ठाएजा - उपस्थापित करे, परं - बाद में, भिक्खुभावस्स - भिक्षु भाव - संयम के, अट्ठाए - प्रयोजन के लिए, दोच्चं पि - दूसरी बार, अणुण्णवेयव्वेअनुज्ञापनीय - आज्ञा लेने योग्य, सिया - हो, मिओग्गहं - मित - परिमित अवग्रह, धुवं - ध्रुव, णितियं - नित्य, णिच्छइयं - निश्चित्त, वेउट्टियं - व्यावर्तित होना - प्रतिदिन करते रहना, कायसंफासं - कायसंस्पर्श - चरणस्पर्श, चरियाणियट्टे - चारिकानिवृत्त।
भावार्थ - ११८. चारिका प्रविष्ट भिक्षु चार-पाँच रात तक की अवधि में स्थविरों को देखे, उनसे मिले तो उस भिक्षु द्वारा क्रीयमाण आलोचना, प्रतिक्रमण वही - पुर्वानुरूप रहते हैं
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