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________________ रोग ग्रस्त आचार्य आदि द्वारा पद-निर्देश : करणीयता AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAttrakaaaaaaaaaaaaaaaaa* जो उसके बाद भी एक या दो रात से अधिक ठहरता है, वह मर्यादोल्लंघन रूप दोष के कारण दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। विवेचन - भिक्षु आगम मर्यादानुसार एकाधिक भिक्षुओं के समुदाय के रूप में विहरणशील होते हैं। उस समुदाय को संघाटक कहा जाता है। संघाटक में एक अग्रगण्य होता है, जिसे आचारांग एवं निशीथ आदि सूत्रों का ज्ञाता होना आवश्यक है। संघाटकपति या अग्रणी के नेतृत्व में भिक्षु विहार करते हैं, चातुर्मासिक प्रवास करते हैं। अग्रणी का होना नितान्त आवश्यक माना गया है, क्योंकि विशेषज्ञ, सुयोग्य प्रमुख भिक्षु के नेतृत्व में आचार, साधना, तपश्चरण आदि सभी कार्य समीचीन रूप में चलते हैं, इसलिए इन सूत्रों में अग्रणी का निधन हो जाने पर, जब तक दूसरा सुयोग्य अग्रणी प्रस्थापित या मनोनीत न हो, भिक्षु को अपनी विहार यात्रा में एक रात से अधिक कहीं रुकना नहीं कल्पता। जहाँ अन्य साधर्मिक भिक्षु हों, उस और रास्ते में एक-एक रात रुकते हुए जाना कल्पता है। जैन दर्शन अनेकान्तवाद पर आश्रित है। वहाँ किसी भी बात को एकान्तिक रूप में गृहीत नहीं किया जाता, विभिन्न अपेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए विधान किया जाता है, कार्य-निर्णय किया जाता है। इसीलिए इन सूत्रों में यह प्रतिपादन किया गया है कि रुग्णता आदि अनिवार्य कारण हो तो अधिक भी रुका जा सकता है, किन्तु कारण के सर्वथा अपगत हो जाने पर रुकना अपराध है, क्योंकि वैसा करने में धार्मिक मर्यादा का उल्लंघन होता है। . रोगग्रस्त आचार्य आदि द्वारा पद-निर्देश: करणीयता .. - आयरियउवज्झाए गिलायमाणे अण्णयरं वएज्जा अन्जो ! ममंसि णं कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्सियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे से य णो समुक्कसणारिहे णो समुक्कसियव्वे, अस्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे, णस्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे, तंसि च णं समुक्किटुंसि परो वएजा - दुस्समुक्किट्ठ ते अज्जो ! णिक्खिवाहि, तस्स णं णिक्खिवमाणस्स णत्थि केइ छए वा परिहारे वा जे साहम्मिया अहाकपणं णो उट्ठाए विहरंति सव्वेसिं तेसिं तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा॥१११॥ __कठिन शब्दार्थ - गिलायमाणे - रोग आदि से ग्लान - पीड़ित, मर्मसि कालगयंसि समाणंसि - मेरे कालगत हो जाने पर - दिवंगत हो जाने पर, अयं - यह या इसे, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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