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________________ व्यवहार सूत्र - तृतीय उद्देशक तीन वर्ष व्यतीत होने के अनन्तर चौथे वर्ष में प्रविष्ट हो जाने पर यदि वह ब्रह्मचर्य में स्थित, उपशान्त वासना विरहित, अब्रह्मचर्य से सर्वथा उपरत, प्रतिविरत तथा विकार शून्य हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना एवं धारण करना कल्पता है । ८३. गणावच्छेदक, गणावच्छेदक के पद पर रहता हुआ, गण से पृथक् न होता हुआ अब्रह्मचर्य का सेवन करे तो उस कारण से उसे जीवनभर के लिए आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना तथा धारण करना नहीं कल्पता । ८४. गणावच्छेदक यदि गणावच्छेदक पद से निष्क्रान्त हो कर हट कर, पृथक् हो कर अब्रह्मचर्य का सेवन करे तो उस कारण से उसे तीन वर्ष तक आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना एवं धारण करना नहीं कल्पता । तीन वर्ष व्यतीत होने के अनन्तर, चौथे वर्ष में प्रविष्ट हो जाने पर यदि वह ब्रह्मचर्य में स्थित, उपशान्त वासना विरहित, अब्रह्मचर्य से सर्वथा उपरत, प्रतिविरत और विकार शून्य हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना तथा धारण करना कल्पता है । ८५. आचार्य और उपाध्याय यदि आचार्य तथा उपाध्याय पद से निष्क्रान्त हुए बिना - हटे बिना, पृथक् हुए बिना अब्रह्मचर्य का सेवन करे तो उस कारण से उनको यावज्जीवन जीवनभर के लिए आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना एवं धारण करना नहीं कल्पता । ८६. आचार्य तथा उपाध्याय यदि आचार्य पद और उपाध्याय पद से निष्क्रान्त होकर हटकर अब्रह्मचर्य का सेवन करें तो उस कारण से उन्हें तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पट पद देना और धारण करना नहीं कल्पता । तीन वर्ष व्यतीत होने के अनन्तर, चौथे वर्ष में प्रविष्ट हो जाने पर यदि वे ब्रह्मचर्य में स्थित, उपशान्त • वासना विरहित, अब्रह्मचर्य से सर्वथा उपरत, प्रतिविरत एवं विकार शून्य हो जाएं तो उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना तथा धारण करना कल्पता है । विवेचन - साधु के पांचों ही महाव्रत महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु उनमें भी ब्रह्मचर्य पालन पर बहुत जो दिया गया है। क्योंकि उसमें सर्वथा स्थिर और अविचल रहते हुए साधनारत रहना बड़े आत्मबल पर निर्भर है। प्राणी के जीवन में 'काम' का आकर्षण दुर्निवार है। उसे जीतने के लिए बड़े ही अन्तः - पराक्रम की आवश्यकता होती है । नीतिकार ने इस संबंध में लिखा है Jain Education International - - - For Personal & Private Use Only ५६ **** - www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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