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व्यवहार सूत्र - तृतीय उद्देशक
आगमों में अनुशास्ता के रूप में आचार्य, उपाध्याय की तरह स्थविरों का भी उल्लेख हुआ है। कहीं-कहीं पर तो आगमों में आचार्य उपाध्याय से भी स्थविरों की विशिष्टता बताई गई है। ठाणांग सूत्र ठाणा ३ उद्देशक ४ में - "गुरु की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक (विरोध एवं दुर्व्यवहार करने वाले) बताये गये हैं । जिसमें आचार्य प्रत्यनीक, उपाध्याय प्रत्यनीक की तरह स्थविर प्रत्यनीक भी बताया है। इससे स्पष्ट होता है कि " आगमकार स्थविरों को भी आचार्य उपाध्याय के समान कोटि का एवं अनुशास्ता तथा गुरु मानते हैं" व्यवहार सूत्र उद्देशक ३ में बताया है 'कम से कम आचारांग, निशीथ सूत्र को जानने वाले, ३ वर्ष की दीक्षा / पर्याय वाले साधु को उपाध्याय, दो अंग चार छेद जानने वाले ५ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले योग्य साधु को आचार्य एवं चार अंग, चार छेद जानने वाले आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले योग्य साधु को स्थविरादि पद दिये जा सकते हैं।" इत्यादि आगमपाठों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि आचार्य उपाध्याय से स्थविर की योग्यता अधिक होती है। ऐसे स्थविरों वाले गच्छ को आचार्य, उपाध्याय की आवश्यकता नहीं रहती है तथा प्रायश्चित्त भी नहीं आता है ।
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उनहत्तर वर्ष तक का प्रौढ कहा जाता है। सत्तर से आगे की वय वाले स्थविर वृद्ध कहे जाते हैं * । स्थानांग आदि आगमों के अनुसार तो ६० वर्ष की उम्र से स्थविर कहा जाता है।
• अब्रह्मचर्य-सेवी को पद देने के संदर्भ में विधि-निषेध
भिक्खू य गणाओ अवक्कम मेहुणधम्मं पडिसेवेज्जा, तिणिण संवच्छराणि तस्स पत्तियंणो कप्प आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिव्विकारस्स एवं से कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा ॥ ८२ ॥
गावच्छेइ गणावच्छेइयत्तं अणिक्खिवित्ता मेहुणधम्मं पडिसेवेज्जा, जावज्जीवाए
* तिवरिसो होइ नवो, आसोलसगं तु डहरग बेंति ।
तरुणो चत्तालीस्रो, सत्तरि उण मज्झिमो थेरओ सेसो॥ भाष्य गाथा २२० एवं टीका
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