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________________ व्यवहार सूत्र - तृतीय उद्देशक aaaaaaaaaaaaaaARAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAdaktarkamarate ___ यदि कोई भिक्षु स्थविरों की अनुमति प्राप्त किए बिना ही गण को धारण करे तो यह मर्यादा का उल्लंघन है। इससे दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त आता है। जो साधर्मिक भिक्षु उसके निर्देशन में विहरणशील होते हैं उनको दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त नहीं आता। - विवेचन - इन सूत्रों में गण या संघाटक का आधिपत्य - प्रामुख्य प्राप्त करने के संदर्भ में वर्णन हुआ है। ___ इस प्रसंग में 'भगवं - भगवान्, अपलिच्छण्णे - अप्रतिच्छन्न, पलिच्छण्णेप्रतिच्छन्न' शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। भगवान् शब्द 'भग' एवं 'मतुप' प्रत्यय के योग से बना है। 'भग' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जिनमें उत्कर्ष, वैराग्य, ज्ञान, चारित्र एवं मोक्ष आदि भी हैं। भगवान् शब्द इन्हीं विशेषताओं का संवाहक है। इसका भिक्षु के विशेषण के रूप में प्रयोग हुआ है। मुमुक्षु - मोक्षार्थी भिक्षु में ये विशेषताएं होती ही हैं। प्रतिच्छन्न शब्द परिच्छेद से बना है। परिच्छेद मुख्यतः आगम श्रुत का द्योतक है। गण का अधिपति या अग्रणी आचारांग आदि छेद सूत्र पर्यन्त आगमों का ज्ञाता हो, यह आवश्यक है, क्योंकि गण,समूह या संघाटक का नेतृत्व करने वाले में वैसी योग्यता का होना अपेक्षित है। . __ आगम ज्ञान आदि की विशेषता के बावजूद 'थेरे' - स्थविरों की अनुमति या अनुज्ञा प्राप्त करने का जो उल्लेख हुआ है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। वयोवृद्ध, पर्यायवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध भिक्षुओं को स्थविर कहा जाता है। वे बड़े अनुभवी होते हैं। साधना, आचार-मर्यादा, व्यवस्था, व्यवहार आदि का उन्हें बहुत ज्ञान होता है। अतः आगम ज्ञान आदि की दृष्टि से योग्य होते हुए भी स्थविरों की अनुमति के बिना गण या समुदाय का आधिपत्य प्राप्त करने का यहाँ निषेध या परिवर्जन किया गया है। वैसा करना दोष युक्त माना मया है। एक बात यहाँ और भी महत्वपूर्ण है। दोष की भागिता केवल उसी भिक्षु पर आती है, जो स्थविरों को पूछे बिर्ना - उनकी अनुज्ञा पाए बिना गण का प्रमुख बनता है। उसके निर्देशन में विहरणशील भिक्षु दोषी नहीं माने जाते, क्योंकि उस भिक्षु के निर्णय में उनका कोई साथ नहीं होता। वे तो साधु-मर्यादा के अनुरूप संयम-साधना में गतिशील होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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