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________________ व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक उसका सेवन करने इत्यादि के सम्बन्ध में जो व्यवस्थाएं दी गई हैं, वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । दोनों ही प्रकार के भिक्षुओं के ये कार्य उपर्युक्त मर्यादाओं के साथ न हों तो उन्हें अपने संयममय जीवन के सन्निर्वाह में कदाचन यत्किंचित् प्रतिकूलता का भी अनुभव हो सकता है । संयम आध्यात्मिक दृष्टि से एक अमूल्य रत्न है, जिसका अत्यधिक जागरूकता के साथ संरक्षण किया जाना चाहिए। रहन-सहन विषयक, आहार- पानी विषयक मर्यादाएं इसी भाव की द्योतक हैं। Jain Education International उपर्युक्त सूत्रों में पडिग्गह, कमंडलु एवं पलाशक (मात्रक) के रूप में तीन पात्रों का उल्लेख तो हुआ ही हैं । पडिग्गह शब्द से आहार एवं व्यंजन के लिए दो पात्रों का ग्रहण किया जाता है। जैसा कि भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक ५ में गौतमं स्वामी के वर्णन में - 'भायणाई पडिलेहेड' शब्द आया है। टीकाकार ने इसकी बहुवचन में संस्कृत छाया की है । इत्यादि कारणों से सम्भवतः टब्बों में 'मात्रक' को छोड़कर आहार पानी के लिए तीन पात्रों का उल्लेख गणना युक्त के लिए हुआ है। जो उपर्युक्त आधारों से संगत ही प्रतीत होता है। यदि आहार पानी के लिए एक ही पात्र माना जायेगा तो उस पात्र की लेख शुद्धि भी. ( पानी और आहार शामिल हो जाने से ) संभव नहीं हो सकेगी, जो आगम दृष्टि से संगत भी नहीं है। अतः आहार आदि के लिए तीन और एक पात्र बाहर के लिए कुल मिलाकर चार पात्र गणना युक्त में और इनसे अधिक रखना गणना अतिरिक्त में समझना चाहिए। 1 ॥ व्यवहार सूत्र का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ ४२ For Personal & Private Use Only ** www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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