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________________ व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक ४० ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ - कठिन शब्दार्थ - वत्थए - वास करना - रहना, अण्णमण्णं - अन्योन्य - परस्पर, संभुंजंति - आहार करते हैं, मासंते - मास के अन्त में - छह मास के तप और एक मास के पारणे के बाद, असणं - चावल, गेहूँ आदि अन्न से तैयार किए गए भोज्य पदार्थ, पाणं - अचित्त जल, खाइमं - खादिम - अन्न वर्जित शुष्क फल मेवा आदि, साइमं - स्वादिम - सुपारी, लौंग, इलायची आदि, दाउं - देना, अणुप्पदाउं - अनुप्रदान करना - पुनः देना, देहि - देदो, लेवं - लेप - घृत, दूध आदि विगय पदार्थ, अणुजाणावेत्तए - अनुज्ञा या आज्ञा देने के लिए, अणुजाणह - अनुज्ञा या आज्ञा दें, समासेवित्तए - आसेवित करना - काम में लेना, सएणं - अपने, पडिग्गहेणं - प्रतिगृहीत करना - लेना, भोक्खामिखाऊंगा, पाहामि - पीऊंगा, भोत्तए - भुक्त करना - सेवन करना, पायए - पीना - पान करना, सयंसि - स्वकीय(स्वयं के), पलासगंसि - पलाशक - मात्रक, कमढगंसि - कमंडल में(जलपात्र में), खुव्वगंसि - दोनों संपुटित हाथों में (खोबे में), पाणिंसि - हाथ (एक हाथ की पसली में) में, उद्धट्ट - उद्धृत कर - उठाकर, भोत्तए - भुक्त करना - खाना, पायए - पीना, एस - यह, कप्पो - कल्प - मर्यादा विधान। भावार्थ - ६६. बहुत से पारिहारिक तथा बहुत से अपारिहारिक भिक्षु यदि एक, दो, तीन, चार, पाँच, या छह मास तक एक साथ रहना चाहें तो वे अन्योन्य - परस्पर भोजन कर सकते हैं। अर्थात् पारिहारिक पारिहारिकों के साथ और अपारिहारिक अपारिहारिकों के साथ भोजन कर सकते हैं, किन्तु पारिहारिक भिक्षु अपारिहारिकों के साथ भोजन नहीं कर सकते हैं। वे (पारिहारिक और अपारिहारिक भिक्षु) छह मास के तप और एक मास के पारणे का समय व्यतीत हो जाने पर एक साथ भोजन कर सकते हैं। .६७. परिहारकल्प स्थित भिक्षु को अपारिहारिक भिक्षु द्वारा) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि चतुर्विध आहार प्रदान किया जाना - देना या अनुप्रदान किया जाना - आमंत्रित करके देना नहीं कल्पता। स्थंविर यदि कहे - हे आर्य! तुम इन पारिहारिक भिक्षुओं को यह आहार प्रदान करो या अनुप्रदान करो तो ऐसा कहने पर उसे पारिहारिक भिक्षु को आहार प्रदान करना या अनुप्रदान करना कल्पता है। परिहारकल्प स्थित भिक्षु यदि घी, दूध आदि विगय पदार्थ लेना चाहें तो उसे स्थविर से इसकी अनुज्ञा लेना कल्पता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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