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व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक
३२ aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa* -- तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
५५. सप्रायश्चित्त भिक्षु यदि बीमारी से पीड़ित हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से पूरी तरह छूट न जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा-परिचर्या करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक ठसे बहुत कम प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
५६. भक्त-पान परित्यागी भिक्षु यदि रोगग्रस्त हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से विप्रमुक्त न हो जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
५७. अर्थजात - शिष्य प्राप्ति, पद लिप्सा आदि किसी इच्छा से व्याकुल बना हुआ भिक्षु यदि रोगग्रस्त हो जाए - बीमारी से पीड़ित हो जाए तो गणावच्छेदक को उसे गण से पृथक् करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग से विप्रमुक्त न हो जाए - छूट न जाए, तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य - सेवा-परिचर्या करनी चाहिए यावत् पश्चात् गणावच्छेदक उसे अत्यल्प - बहुत कम प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे।
विवेचन - जैन दर्शन अनेकान्तवादी विचारधारा पर आश्रित है। वहाँ किसी भी विषय में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण स्वीकृत नहीं है। विभिन्न अपेक्षाओं को भलीभाँति देखते हुए किसी । भी कार्य का निर्णय करना वहाँ अभीष्ट है। इसी को स्याद्वाद पद्धति कहा जाता है। आचारमर्यादाओं का भी इसी के अनुरूप विधान किया गया है।
इस सूत्र में जिन बारह प्रकार के भिक्षुओं का वर्णन किया गया है, वे भिन्न-भिन्न प्रकार के बाधक हेतुओं के कारण असंतुलित मनोदशायुक्त हैं। जब व्यक्ति का मानस असंततित होता है, तब उसे उचित-अनुचित का प्रायः ध्यान नहीं रहता। इसलिए उसके माथ वैसा व्यवहार करना असमीचीन है, जैसा एक स्वस्थ मनोदशायुक्त व्यक्ति के साथ किया जाता है। अत एव गणावच्छेदक वैसी स्थिति में भिक्षु को गण से पृथक् न करे, ऐसा इनमें प्रतिपादन हुआ है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यहाँ वैयावृत्य या सेवा-परिचर्या की है। गृहत्यागी भिक्षु के साथी भिक्षु ही पारिवारिकजन हैं। अस्वस्थता में एक-दूसरे की सेवा करना उनका परम कर्तव्य है।
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