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________________ एकाकी विहरणशील का गण में पुनरागमन xxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkakkakakakakakakakakakakakakakakakakakat वह पूर्वावस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा-छेद या तप विशेष का जो प्रायश्चित्त दे तो उसे वह अंगीकार करे। . __. २७. इसी प्रकार यदि कोई आचार्य, उपाध्याय गण से पृथक् होकर एकाकी विहारचर्या स्वीकार कर विचरणशील रहे तथा बाद में वह पुनः उसी गण में वापस सम्मिलित होकर रहना चाहे तो वह पूर्वावस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा-छेद या तप विशेष का जो प्रायश्चित्त दे, उसे अंगीकार करे। विवेचन - 'शब्दाः कामदुघा' के अनुसार शब्दों के प्रसंग, प्रयोजन, भाषा-शास्त्रीय विधि-विधान इत्यादि के कारण अनेक अर्थ होते हैं। कोश, व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान द्वारा वे निर्णीत होते हैं। यहाँ ‘एगल्लविहारपडिम' पद में प्रयुक्त 'पडिम' शब्द प्रतिमा के अर्थ में नहीं है, चर्या के अर्थ में है। सामान्यतः यह विधान है कि आर्हती दीक्षा में प्रव्रजित भिक्षु संघ में रहता हुआ चारित्राराधना करे। संयम पालन की दृष्टि से वैसा करना उसके लिए उपयोगी होता है किन्तु शास्त्रों में दो परिस्थितियों की ऐसी चर्चा है जहाँ साधु संघ से पृथक् होकर एकाकी विहरणशील होता है। उनमें पहली स्थिति को अपरिस्थितिक कहा गया है क्योंकि वह किसी परिस्थिति विशेष के कारण नहीं बनती। प्रतिमाओं की आराधना, उत्कृष्ट साधना हेतु भिक्षु आचार्य के आदेश से उसे स्वीकार करता है। अत एव गण से पृथक् रहता हुआ भी वह आचार्य संपदा में ही परिगणित होता है। अपनी साधना को परिसंपन्न कर वह ससम्मान पुनः गण में सम्मिलित हो जाता है। दूसरी स्थिति सपरिस्थितिक कही गई है, जो परिस्थिति विशेष के कारण उत्पन्न होती है। शारीरिक-मानसिक कारण, प्रकृति की विषमता - असहिष्णुता एवं संयम परिपालन में अनुकूल सहयोगी का अभाव इत्यादि हेतुओं से जो साधु संघ से पृथक् होकर एकाकी विहरणशील हो जाता है, वह गण का अंग या गण में सम्मिलित नहीं माना जाता। वैसा साधु यदि पुनः गणं में आना चाहे तो वह गण के आचार्य के सम्मुख उपस्थित होकर गण से पृथंक रहने के समय ज्ञात-अज्ञात रूप में हुए दोषों का पूर्णतः आलोचन, प्रतिक्रमण करे। आचार्य उसे सुनकर दीक्षा-छेद या तप विशेष का जो प्रायश्चित्त उसे दें, वह उसे स्वीकार करे। वैसा करने पर वह गण में पुनः सम्मिलित किया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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