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________________ १५ परिहार-तप निरत भिक्षु का वैयावृत्य हेतु विहार MarwARANAKAMANARAriaxxxwittarikritikrixxxxxxxxxxxxxxxx कल्पता। यदि वह वहाँ एक या दो रात से अधिक ठहरता है तो उसे मर्यादोल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - रुग्ण साधु की सेवा - परिचर्या का बहुत महत्त्व है, क्योंकि साधु के न कोई परिवार होता है, न कोई मित्र संबंधी ही होते हैं। प्रव्रजित या दीक्षित होते ही समस्त सांसारिक संबंध छूट जाते हैं, साधु जीवन में गृहस्थ से शारीरिक सेवा लेने का निषेध है। क्योंकि इससे राग, मोह, आसक्ति आदि का बढना आशंकित है। साधु ही साधु की सेवा कर . सकता है। यहाँ परिहार-तप निरत भिक्षु के रुग्ण साधुओं की सेवा हेतु जाने के विधिक्रम का वर्णन किया गया है। "णत्थि पंथसमा जरा" के अनुसार मार्ग पर पैदल चलना बहुत कठिन है। युवा भी वृद्ध की तरह परिश्रान्त हो जाता है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए आगमकार ने यहाँ सेवा हेतु जाने वाले परिहार-तप निरत भिक्षु की तीन स्थितियों का वर्णन किया है। स्थविर जब देखते हैं कि भिक्षु दैहिक दृष्टि से स्वस्थ और सशक्त नहीं है तो उसे मार्ग में परिहार-तप छोड़ने की अनुमति प्रदान करते हैं। जब उन्हें लगता है कि भिक्षु सशक्त और परिपुष्ट है तो वे उसे परिहार-तप छोड़ने की अनुमति नहीं देते। तदनुसार वह परिहार-तप चालू रखता है। तीसरी स्थिति वह है, जहाँ स्थविर न तो परिहार-तप छोड़ने की बात कहते हैं और न . ही यथास्थिति रखने की बात कहते हैं, वे पारिहारिक भिक्षु के विवेक पर छोड़ देते हैं। उस स्थिति में यदि भिक्षु स्वयं को तप चालू रखने में समर्थ समझे तो तप चालू रखे। मार्ग में अधिक न रूकने की बात कही गई है, उसका आशय यह है कि रुग्ण व्यक्ति का क्षण-क्षण निकलना बहुत कठिन होता है। उसे अविलम्ब सेवा की आवश्यकता होती है। अत एव तदर्थ गमनोद्यत भिक्षु का एक ही लक्ष्य रहे कि वह यथाशीघ्र अपनी मंजिल पर पहुँचकर रुग्ण साधु की सेवा में लग जाए। 'विवेगे धम्म माहिए' विवेक में ही धर्म है, जैन दर्शन की यह मान्यता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वहाँ प्रत्येक विषय पर ऐकान्तिक दृष्टि से विचार नहीं किया जाता, अनेकान्त दृष्टिप्वंक, समन्वय पूर्वक चिन्तन किया जाता है। यही कारण है कि इस सूत्र में एक रात से अधिक ठहरने की बात कहते हुए भी यह विधान किया गया है कि जाने वाला साधु स्वयं बीमार हो जाए अथवा वैसा ही कोई अनिवार्य कारण उत्पन्न हो जाए तो वह एक-दो रात से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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