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बृहत्कल्प सूत्र - छठा उद्देशक
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यहाँ यह ज्ञातव्य है कि महाव्रतारोपण रूप यावज्जीविक कल्पस्थिति मध्यम तीर्थंकरों के शासनकाल में होती है।
दो भेदों की स्थिति प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकरों के शासनकाल में होती है। मध्यम (दूसरे से तेवीसवें तक) तीर्थंकरों के शासनकाल में यह भेदस्थिति नहीं होती क्योंकि सर्वसावध योग विरति के अनन्तर वहाँ पुनः महाव्रतारोपण नहीं कराया जाता।
२. छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति - महाव्रतों की विस्तार पूर्वक आरोपण (बड़ी दीक्षा) तथा महाव्रतों में दोष लगने पर पूर्ववर्ती दीक्षापर्याय का छेदन कर पुनः महाव्रतारोपण छेदोपस्थापनीय चारित्र है। यह द्विविध है - ___(अ) निरतिचार - अपने नवदीक्षित मुनि तथा पार्श्वपरंपरानुवर्ती चातुर्याम धारक मुनियों में पुनः महाव्रतारोपण।
(ब) सातिचार - संयम में दोष लगने पर दीक्षा छेदपूर्वक पुनः महाव्रतारोपण।
३. निर्विशमान कल्पस्थिति - परिहार विशुद्धि रूप तप करने में संलग्न मुनियों की समाचारी या आचार मर्यादा निर्विशमान कल्पस्थिति कही जाती है। .
४.निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति - जिस साधु ने परिहार विशुद्धि संज्ञक चारित्र को आसेवित - संपन्न कर लिया हो, उसके लिए मर्यादित कल्पस्थिति निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति है। ___५. जिनकल्पस्थिति - विशिष्ट तपश्चरण हेतु जो साधु गण से बाहर रहकर साधना करते हैं, उनकी विहित मर्यादाएँ जिनकल्पस्थिति कही जाती हैं। ___६. स्थविर कल्पस्थिति - गण के भीतर आचार्य एवं उपाध्याय आदि के अनुशासन में रहते हुए संयमनिरत साधुओं के लिए परिकल्पित समाचारी स्थविर कल्पस्थिति है। ___इन भिन्न-भिन्न साध्वाचार रूप कल्पों में उन-उन साधनाक्रमों के अनुरूप नियमों का वैविध्य होता है किन्तु सभी का लक्ष्य साधना को बल देना तथा मोक्षमार्ग की दिशा में स्वयं को संस्फूर्त बनाना है।
इस प्रकार बृहत्कल्प सूत्र संपन्न होता है।
॥बहत्कल्प सूत्र का छठा उद्देशक समाप्त॥ ॥बिहक्कप्पसुत्तं समत्तं - बृहत्कल्प सूत्र समाप्त।
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