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________________ १३५ अकल्प्य वचन निषेध . ****************************** ************************* १. अलीकवचन - अलीक शब्द अल् धातु एवं वीकन प्रत्यय के योग से बनता है, . जिसका अर्थ अयर्थाथ या असत्य है। वाणी की यथार्थता के लिए सत्य शब्द का व्यवहार होता है। अस्तित्वबोधक 'अस्' धातु से सत् बनता है। 'सतोभाव: सत्यम्' - के अनुसार जिसका जिस रूप में अस्तित्व है, उसे उसी रूप में व्यक्त करना सत्य है। असत्यवर्जन या सत्य प्रयोग पाँच महाव्रतों में दूसरा महाव्रत है। २. हीलितवचन - साधु के वचन में ऐसा भाव कदापि न हो, जिससे सुनने वाले के मन में जरा भी पीड़ा, अपमान या दुःख का भाव हो। ___ हीलितवचन वह है, जिसमें सुनने वाले के मन में अपने प्रति अवहेलना, अपमान या तिरस्कार का भाव उत्पन्न हो। ३. विंसितवचन - आक्रोश, असहिष्णुता, असंतोष, ईर्ष्याप्रसूत असंतुलन के परिणामस्वरूप जो खीझपूर्ण वाणी निकलती है, वह श्रोता के लिए दुःखद होती है एवं क्लेश, कदाग्रह बढ़ाकर वैमनस्य की वृद्धि करती है। . ४. परुषवचन - कर्कश, रूक्ष, कठोरवचन परुषवचन कहे जाते हैं। ५. गार्हस्थ्यवचन - जैसे - अरे, अरी, मित्र, सखी, पिता, पुत्र, भाई, मामा आदि गृहस्थ के रिश्ते सूचक वचन। एक श्रमण गृहस्थ जीवन का परित्याग कर पंचमहाव्रतमय, सर्वथा निर्लिप्त तथा निष्कामजीवन स्वीकार करता है। एक प्रकार से उसका गृहस्थ जीवन मृत हो जाता है, उसे नवजीवन प्राप्त हो जाता है। परिवार, कुटुम्ब, संबंधी आदि किन्हीं के साथ उसका लगाव नहीं रहता। "वसुधैवकुटुम्बकम्" या "विश्वबंधुत्व" की भूमिका पा लेता है। उसके हर व्यवहार में यह भाव अभिव्यक्ति पाए यह वांछित है। अत एव ऐसी वाणी उसके लिए अकथनीय है, जिसमें गार्हस्थ्य विषयक जरा भी आसक्ति का भाव व्यक्त हो। ६. कलहोत्पादक वचनों का पुनः कथन - पारस्परिक अवांछित व्यवहार होने पर क्षमायाचना करने के पश्चात् पुनः उस बात को उठाना, लोक भाषा में 'गढ़े मुर्दे उखाड़ना' कलहोत्पादक का मुख्य हेतु है। नीतिशास्त्र में भी वाक्शुद्धि एवं वाक्संस्कारिता पर बड़ा सुन्दर लिखा है - "केयूरा न विभूषयन्ति पुरुष, हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः। न स्नान न विलेपन न कुसुम, नाऽलंकृता मूर्धजाः॥ वाण्येका समलङ्करोति पुरुष, या संस्कृता धार्यते। क्षीयन्ते खलु भूषणानि सतत, वाग्भूषणं भूषणम्॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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