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________________ १२१ साध्वी को एकाकी गमन का निषेध ************************************************************* रहती है। साध्वी के नारी जीवन की दृष्टि से इस ओर इसलिए विशेष ध्यान दिया गया है कि उसकी दैहिक संस्थिति, कोमलता तजनित स्पर्शानुभूति इत्यादि की दृष्टि से उसके शील भंग की अधिक स्थितियाँ आशंकित रहती हैं। ___ मनुष्यों से ही नहीं, पशु-पक्षियों से भी शील विषयक बादा उत्पन्न होने की स्थिति आ जाती है। अर्द्धमानवीय देहसंस्थिति युक्त पशु (जैसे बंदर) आदि इस संदर्भ में अकस्मात् अंगस्पर्श कर सकते हैं। . भाष्यकार ने तो यहाँ तक लिखा है कि जिस प्रदेश में वानर, मयूर. आदि अधिक हों, वहाँ साध्वी उच्चार-प्रस्रवण हेतु एकाकी न जावे, एक साध्वी साथ जाए तथा हाथ में दण्ड लेकर जाए जिससे इन स्थितियों से बचा जा सके। दण्ड लेने का अभिप्राय उन्हें मारने से नहीं है, वरन् वे उससे सहज ही सशंक रहते हैं तथा बाधा उत्पन्न नहीं करते हैं। ___ यहाँ पर उपर्युक्त दोनों सूत्रों में जो प्रायश्चित्त बताया है, वह मानसिक भावों की अपेक्षा समझना चाहिए। कायिक प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त तो अत्यधिक होता है। साध्वी को एकाकी गमन का निषेध णो कप्पइ णिग्गंथीए एगाणियाए होत्तए॥१५॥ णो कप्पइ णिग्गंथीए एगाणियाए गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥१६॥ ___ णो कप्पइ णिग्गंथीए एगाणियाए बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा॥१७॥ णो कप्पइ णिग्गंथीए एगाणियाए गामाणुगामं दूइज्जित्तए वासावासं वा वत्थए ॥१८॥ भावार्थ - १५. निर्ग्रन्थिनी को एकाकिनी (अकेली) होना नहीं कल्पता है। १६. एकाकिनी निर्ग्रन्थिनी को गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट होना और निकलना नहीं कल्पता है। १७. निर्ग्रन्थिनी को अकेले विचार भूमि (उच्चार-प्रस्रवण विसर्जन स्थान) और विहार भूमि (स्वाध्याय स्थान) में जाना कल्पनीय नहीं कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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