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११२. ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
बृहत्कल्प सूत्र - पंचम उद्देशक
४. यदि कोई देवी पुरुष रूप को विकुर्वित कर साध्वी का आलिंगन करती है और साध्वी उसका अनुमोदन करती है तो वह (मैथुन सेवन न करते हुए भी) भावतः मैथुन सेवन के दोष को प्राप्त करती है तथा अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की भागी होती है। ___ विवेचन - देव या देवी द्वारा विकुर्वणाजनित स्त्री या पुरुष रूप में वासनात्मक भाव से साधु या साध्वी के देह संस्पर्श का जो प्रसंग आया है, देव-देवी अपने विकुर्वित रूप से अदृश्य होकर किसी भी सुरक्षित स्थान पर रहे हुये ऐसा कर सकते हैं। वहाँ यह सहज ही प्रसंग उपस्थित होता है कि इन्हें स्वजातिगत भोग संपूर्ति का यथेष्ट अवसर प्राप्त रहता है तथा रूप सौन्दर्य भी उनका पुरुषों एवं नारियों से अत्यधिक वैशिष्ट्यपूर्ण है फिर देव विकुर्वणा कर वैसा करने का भाव उनके मन में क्यों उत्पन्न होता है? ___ यहाँ दो तथ्य सामने आते हैं - कोई मिथ्यात्वी देव या देवी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी को विचलित करने हेतु ऐसा उपक्रम कर सकते हैं क्योंकि इन्हें संयम से पतित करने में इनकी दूषित मानसिकता परितोष पाती है।
आगमों में इसे अनुकूल परीषह के रूप में व्याख्यात किया गया है। अनुकूल होने पर भी परीषह इसलिए है कि वह संयम के लिए कष्टप्रद एवं विघातक है। - दूसरा तथ्य यहाँ यह है कि देवों में भी मानवों की तरह भोगादि सेवन में वैविध्य प्रतिसेवना का भाव तो रहता ही है। देवगति संबद्ध भोगों का नैरन्तर्य तद्विषयक कुछ नवीनता या भिन्नता की भोगानुभूति का भाव उत्पन्न कर सकता है। तत्पूर्ति हेतु भी देवों और देवियों द्वारा ऐसे उपक्रम आशंकित हैं। . साधु-साध्वी ऐसी स्थिति में सर्वथा अविचलित रहें यह वांछित है किन्तु कदाचन जरा भी मानसिक विचलन हो जाय, उसमें आस्वादानुभूति होने लगे तो वह दोष है। इसी के प्रायश्चित्त की यहाँ चर्चा है।
कलहोपरान्त आगत भिक्षु के प्रति कर्तव्यशीलता भिक्खू य अहिगरणं कटु तं अहिगरणं अविओसवेत्ता इच्छेजा अण्णं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ तस्स पंच राइंदियं छेयं कट्ट परिणि( व्वा )व्ववियर दोच्चंपि तमेव गणं पडिणिजाएयव्वे सिया, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया॥५॥
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