________________
७२
बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक ********** *************xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
. कठिन शब्दार्थ - विप्पजहंति - छोड़कर जाते हैं, तदिवसं - उसी दिन, अवरे - अपर - दूसरे, हव्वमागच्छेज्जा - शीघ्र आ जाएं, पुव्वाणुण्णवणा - पूर्व आज्ञा, उवस्सयपरियावण्णए - उपाश्रय में स्थित वस्त्र, पात्रादि उपकरण, परिहरणारिहे - साधुओं के उपभोग योग्य।
भावार्थ - २५. जिस दिन श्रमण निर्ग्रन्थ शय्या-संस्तारक छोड़ कर विहार कर रहे हों, उसी समय दूसरे श्रमण निर्ग्रन्थ आ जावें तो उन्हीं अवग्रहों - शय्या-संस्तारक आदि को पूर्व अनुज्ञा के अनुसार वे (श्रमण निर्ग्रन्थ) मर्यादित काल तक स्वीकार कर सकते हैं।
२६. यदि कोई उपाश्रयपर्यापन्न - उपाश्रय में पात्र आदि अचित्त उपकरण हों तो उनका भी पूर्व गृहीत आज्ञा के अनुसार मर्यादित काल तक उपभोग किया जा सकता है।
विवेचन - जैसा कि पूर्व में विवेचन हुआ है, साधु-साध्वियों को स्थान, शय्यासंस्तारक, पीठफलक आदि अवग्रहों का शय्यातर की आज्ञा से ही उपभोग करना कल्पता है। यदि किसी स्थान विशेष में विशेष समयावधि या चातुर्मास पर्यन्त साधु-साध्वी शय्यातर की आज्ञा से रह रहे हों और जिस दिन वे छोड़कर जाने को उद्यत हों, उसी दिन आज्ञा लौटाने के पूर्व अन्य साधु-साध्वी वहाँ आ जाएँ तो उन्हें श्रमणोपासक से पुनः आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती।
इधर साधु-साध्वी उपाश्रय छोड़ रहे हो, उनको जितने दिन के लिए मकान मालिक ने आज्ञा दी है वे दिन पूरे हो गए हों और इधर नए साधु-साध्वी पधार जाय, तब मकान मालिक उपस्थित नहीं हो वो भी उस दिन (आठ प्रहर) तक उसी पूर्व आज्ञा से रहना कल्पता है। नियतं काल से आगे आठ प्रहर रहने तक यही अवग्रह चलता है। उसमें अदत्त नहीं लगता है। यह सूत्र का आशय है। जिस प्रकार चातुर्मास के लिए याचना किए हुए मकान में बाद में भी दस दिन तक रह जाने में अदत्त नहीं लगता है। इसी प्रकार मकान छोड़ते समय नए साधु आ जाए तो आठ प्रहर तक उसी आज्ञा में रह सकते हैं। आठ प्रहर में नए आने वाले साधुओं को 'पहले का संघाड़ा विहार कर गया है' इसकी सूचना मकान मालिक को देकर अपने रहने की आज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिए। ऐसा अर्थ करने की धारणा है। भाष्यकार तो छोड़ने के बाद भी ८ प्रहर तक अनुबंध रहने से नए आए हुए साधु उतर सकते हैं। ऐसा अर्थ करते हैं। इस कारण से ही छोड़ने के बाद भी ८ प्रहर तक उसकी शय्यातरता रहती है। किंतु धारणा तो उपर्युक्त प्रकार की ही है। पूर्व साधुओं के चले जाने के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org