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________________ ५६ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★AR बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक चर्मग्रहणविषयक विधि-निषेध __ णो कप्पइ णिग्गंथीणं सलोमाइं चम्माइं अहिद्वित्तए॥३॥ ... कप्पइ णिग्गंथाणं सलोमाई चम्माई अहिट्टित्तए से वि य परिभुत्ते णो चेव णं अपरिभुत्ते, से वि य पडिहारिए णो चेव णं अप्पडिहारिए, से वि य एगराइए णो चेव णं अणेगराइए॥४॥ __णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा कसिणाई चम्माइं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥५॥ कप्पइ णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माइं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥६॥ कठिन शब्दार्थ - सलोमाई - रोम सहित, चम्माई - चर्म - चमड़ा, अहिद्वित्तए - उपयोग में लेना, परिभुत्ते - उपयोग में लिया हुआ, कसिणाई - कृत्स्न - समग्र, अकसिणाइं असंपूर्ण - खण्ड (टुकड़ा)। . भावार्थ - ३. निर्ग्रन्थिनियों को रोमसहित चर्म का उपयोग करना नहीं कल्पता है। ४. निर्ग्रन्थों को रोमसहित चर्म का उपयोग करना कल्प्य होता है। (लेकिन) वह काम में (उपयोग में) लिया हुआ हो, अप्रयुक्त - नया न हो। वह प्रातिहारिक - पुनः लौटाने को कहकर लाया हुआ हो, अप्रातिहारिक न हो। वह एक रात्रि में उपयोग करने हेतु लाया जाय, अनेक रात्रियों में उपयोग करने हेतु न लाया जाय। ५. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को अखण्ड चर्म रखना एवं उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। ६. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को असंपूर्ण चर्मखण्ड - आवश्यकतानुरूप खण्डित चर्म रखना कल्पता है। विवेचन - जैन आचार मर्यादा के अनुसार साधु-साध्वियों के लिए सूत, ऊन आदि के वस्त्र, जिनका पहले वर्णन हुआ है, उपयोग में लेने का विधान है। - इस सूत्र में विशेष आवश्यकता और प्रयोजनवश चर्मखण्ड लेने का विधान हुआ है किन्तु रोम सहित, रोम रहित, संपूर्ण या खण्ड इत्यादि के रूप में जो विशेष मर्यादाएँ निर्धारित की गई हैं, उनका संबंध अहिंसा प्रधान साधु जीवन की गरिमा की दृष्टि से है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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