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________________ ★ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★RRRRR बृहत्कल्प सूत्र - द्वितीय उद्देशक Mann... ५४. भावार्थ - २६. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को इन (निम्नांकित) पाँच प्रकार के वस्त्रों को रखना (धारण करना) और उपयोग करना कल्पनीय है, यथा - १. और्णिक २. औष्ट्रिक ३. सानक ४. वच्चाचिप्पक ५. मुंजचिप्पक। विवेचन - साधु-साध्वियों द्वारा धारण किया जाने वाला रजोहरण उनके प्राणिमात्र के प्रति अहिंसक भाव का द्योतक है। साधु-साध्वी इसके उपयोग द्वारा न केवल अपने को एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय प्राणियों की हिंसा से ही बचाते हैं वरन् इसके दैनंदिन प्रयोग से मन में अहिंसा का भाव भी सुदृढ होता है, जो कर्म कालुष्य को मिटाता है। अर्थात् "येन मृत्तिका - धूलिकादि द्रव्यरजः कर्मास्त्रवादिभावरजश्च हियते, नाश्यते तद् रजोहरणम्" - जिसके द्वारा मृतिका, धूलिकादि द्रव्य रज तथा कर्मास्रव आदि भाव रज का अपगम होता है, वह रजोहरण है। गमनागमन के समय पैरों आदि में लगी धूल अथवा चलने वाले सूक्ष्म जीवों को पीड़ा पहुँचाए बिना इससे दूर किया जा सकता है। इस दृष्टि से यह द्रव्य रजोहरण है। शय्या-संस्तारक, वस्त्र-पात्रादि पर चढे हुए कीड़े-मकोड़ों को भी इस द्वारा कोमलता से ... दूर किया जा सकता है। इस दृष्टि से यह भाव रजोहरण है।। ऊपर बतलाए गए पंचविध रजोहरणों की व्याख्या इस प्रकार है - १. औणिक - भेड़ आदि की ऊन से बनाया गया। २, औष्ट्रिक - ऊँट के केशों (बलों) से निर्मित। ३. सानक - सन (जूट) आदि की वल्कल (छाल) से बनाया गया हो। ४. वच्चाचिप्पक - वच्चा का तात्पर्य डाभ से है। डाभ को कूटने से जो इसका कोमल भाग पृथक् होता है, उससे निर्मित रजोहरण। __५. मुंजचिप्पक - मूंज (नारियल की जोटी) को कूटकर, उससे प्राप्त कोमल भाग से बनाया गया रजोहरण। - ऊपर वर्णित क्रम कोमलता से कठोरता की ओर भी इंगित करता है। अतः सर्वाधिक मुलायम होने से साधु-साध्वियों को और्णिक रजोहरण ही उपयोग में लेना कल्पता है। यदि यह प्राप्त न हो तो उसके पश्चात् क्रम से जो भी प्राप्त हो, देश, काल एवं स्थिति की मर्यादा के अनुसार वह कल्पनीय होता है। ॥ बृहत्कल्प का द्वितीय उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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