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बृहत्कल्प सूत्र - द्वितीय उद्देशक
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पडिगाहित्तए । कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सागारियपिण्डं बहिया णीहडं
संसद्वं पडिगाहित्तए ॥ १५ ॥
जो खलु णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा सागारियपिण्डं बहिया णीहडं असंसठ्ठे संस करेइ करेंतं वा साइज्जन, से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ १६ ॥
कठिन शब्दार्थ अनिर्हतः नहीं ले जाया गया हो, असंस असंश्लिष्ट - नहीं मिलाया गया हो, संसद्वं - मिलाया गया हो, णीहडं - ले जाया गया।
भावार्थ - १४. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को सागारिक का आहार जो बाहर नहीं ले जाया गया हो, अन्य के आहार के साथ संश्लिष्ट - मिश्रित न हो अथवा मिश्रित हो तो भी ग्रहण करना नहीं कल्पता ।
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१५. वह सागारिक पिण्ड, जो बाहर ले जाया गया हो, अन्य के आहार के साथ मिला हुआ हो, वह लेना कल्पता है।
१६. जो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनी बाहर ले जाए गए अमिश्रित आहार को अन्य आहार से मिश्रित करता है, वह लौकिक एवं लोकोत्तर - दोनों प्रकार की मर्यादाओं का अतिक्रमण (व्यतिक्रम) करता हुआ गुरु चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
विवेचन - शय्यातर का आहार किस स्थिति में लेना कल्प्य है, इसकी विभिन्न स्थितियों का विवेचन करते हुए निरूपण किया गया है। यदि शय्यातर का आहार अन्य प्रयोजनवश घर की सीमा से बाहर किसी स्थान में लाया गया हो, वहाँ अन्य लोग भी आहार लाए हों, वे सब मिला दिए गए हों तो उस आहार पर उन भिन्न-भिन्न लोगों का पृथक् स्वामित्व लुप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में सागारिक पिण्ड का अपना अलग अस्तित्व नहीं रहता ।
यहाँ दो स्थितियाँ बनती हैं- सागारिक का घर भी नहीं है और सागारिक का पिण्ड विषयक स्वामित्व पृथक् व्यक्त भी नहीं है। वहाँ आहार लेने में दोष नहीं है क्योंकि सागारिक का आहार के साथ सीधा संबंध वहाँ अविद्यमान है।
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सूत्र में यह और स्पष्ट किया गया है कि वैसी स्थिति उत्पन्न करने में यदि साधु का अपना कर्तृत्व हो या औरों के तद्विषयक कर्तृत्व में उसका अनुमोदन हो तो ऐसा करता हुआ साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है ।
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