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________________ ४१ अग्नि या दीपक युक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध, प्रायश्चित्त - इसका तात्पर्य यह है कि उपाश्रय में ठण्डे या गर्म अचित्त जल से युक्त घड़े रखे हों तो . यह आशंकित है कि रात्रि आदि में तीव्र तृषा आदि के कारण साधु की मानसिकता उसे पीने की बन सकती है। जिससे रात्रि में भक्तपानविरमण व्रत खण्डित हो जाता है। जिस मकान में पहले से ही सचित्त अथवा अचित्त पानी के घड़े रखें हुए हों, दिन रात वहाँ पर रहते हों अर्थात् उद्गशाला (प्याऊ, परिण्डा आदि) रूप होने के कारण वहाँ पर निरन्तर पानी रहता हो, तो वहाँ पर दूसरा मकान मिलते हुए उतरने का निषेध किया है, किन्तु . जहाँ पर साधु-साध्वियों के उतरने के बाद कोई गृहस्थ अपने पीने के लिये अचित्त पानी ले आवे और मकान के किसी अलग हिस्से में (जिधर साधु-साध्वियों के भण्डोपकरण न हों) मात्र दिन में कुछ समय के लिये रखे तो उसकी रोक नहीं की जाती है। तथा सूत्र में 'उवणिक्खित्ते सिया' इस प्रकार का पद होने से उपर्युक्त प्रकार से रखने पर बाधा भी ध्यान में नहीं आती है। - अग्नि या दीपक युका उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध, प्रायश्चित्त . . उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराइए जोई झियाएजा, णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे णोलभेजा, एवं से कप्पइ एगरायंवा दुरायंवा वत्थए, णो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसई, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥६॥ ___उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराइए पईवे दिप्पेज्जा, णो कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे णोलभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायंवा दुरायं वा वत्थए, णो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥७॥ कठिन शब्दार्थ - जोई - ज्योति - अग्नि, झियाएजा - जले, पईवे - प्रदीप, दिप्पेज्जा - प्रदीप्त हो - जले। भावार्थ - ६. उपाश्रय के भीतर संपूर्ण रात्रि पर्यन्त अग्नि जले तो साधु-साध्वियों को वहाँ क्षण भर भी रहना नहीं कल्पता है। बाहर गवेषणा करने पर अन्य स्थान न मिले तो ऐसे स्थान में एक या दो रात्रि तक रहना कल्पता है। एक रात या दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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