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________________ ३३ रात्रि में गमनागमन निषेध ४५. रात्रि में या विकाल में संखडि - सामूहिक भोज के लिए या संखडी स्थल पर जाना (भी) साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता। विवेचन - रात्रि में सूर्य के प्रकाश के अभाव में लघुकायिक जीवों की हिंसा की अधिक आशंका रहती है। कण्टकादि, सर्पादि, विषैले जीवों आदि की भी हिंसा की अधिक आशंका रहती है परन्तु मुख्य हेतु षट्कायिक जीवों की हिंसा से अपने आपको बचाना है, जिससे महाव्रताराधना अविराधित रूप में चलती रहे। द्वितीय सूत्र में भिक्षार्थ संखडी में जाने एवं वहाँ से भिक्षा लेने का निषेध किया गया है। 'संखडि' का संस्कृत रूप 'संखण्डी' या 'संखण्डिका' है। "संखण्ड्यन्ते, खण्डीक्रियन्ते त्रोट्यन्ते वा षट्कायजीवानामायूंषि या सा संखण्डी संखण्डिका वा, अग्न्यारम्भे षट्कायानामुपमर्दनसद्भावात्" - अर्थात् जहाँ छह काय के जीवों के आयुष्य को खण्डित, विच्छिन्न या त्रोटित किया जाता है, वह सखण्डी (संखडी) या सखण्डिका है। यह शब्द वृहद्भोज के लिए प्रयुक्त होता रहा है, जिसमें किसी ग्राम या नगर के अथवा आस-पास के समीपवर्ती स्थानों के लोग आमंत्रित होते हैं। उनके भोजन के लिए बड़ी-बड़ी भट्टियाँ जलती हैं, अग्निकाय का महारंभ होता है, जिसमें षट्काय जीव उपमर्दित या विनष्ट होते हैं। ऐसे हिंसा बहुल आयोजन में साधु के लिए भिक्षार्थ जाना तथा ऐसे स्थान पर जाना निषिद्ध है। ऐसी स्थिति में साधु के लिए आहार प्राप्त करने की समस्या हो जाती है। इस संदर्भ में बतलाया गया है कि उस वृहद्भोज के क्षेत्र में दो कोस तक साधु गृहस्थों के संखडि में जाने से पूर्व उनके यहाँ भिक्षार्थ जा सकता है किन्तु सूर्योदय से पूर्व (रात्रि व विकाल) में नहीं जा सकता। सूत्र क्रमांक ४५ में जो 'राओ वा वियाले वा' पाठ आया है उसका आशय यह है कि आचारांग सूत्र के श्रु. २, अ. १, उ. ४ में आकीर्ण अवम संखडी न हो तो दिन में जाने की विधि बताई है। उस कारण से इस सूत्र में रात्रि व विकाल शब्द दिया गया है। अर्थात् रात्रि व विकाल में तो किसी भी संखडी में जाना कल्पनीय नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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