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कपाटरहित स्थान में साधु-साध्वियों की प्रवास मर्यादा
किच्चा एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडिय(चेल )चिलिमिलियागंसि एवं णं व पइ वत्थए ॥१४॥
कप्पइ णिग्गंथाणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - अवंगुयदुवारिए - अपावृत - खुले द्वार, उवस्सए - उपाश्रय में, पत्थारं - प्रस्तार - पर्दा, ओहाडिय - लगाकर - बांधकर, चिलिमिलियागंसि - मध्यवर्ती मार्ग युक्त (चिलिमिलिका)।
भावार्थ - १४. साध्वियों को खुले द्वारा वाले - कपाट रहित स्थान में रहना नहीं कल्पता।
साध्वियों को खुले कपाट वाले उपाश्रय में एक पर्दा (प्रस्तार) भीतर तथा एक पर्दा बाहर बाँध कर - मध्यवर्ती मार्ग रखते हुए चिलमिलिकावत् - महीन छिद्रयुक्त दो पर्यों को व्यवस्थित कर रहना कल्पता है। : . १५. साधुओं को खुले द्वार - कपाट वाले स्थान में रहना कल्पता है।
विवेचन - जैन आगमों और शास्त्रों की यह विशेषता है कि प्रत्येक विषय पर उनमें बड़ी सूक्ष्मता और गहराई से चिन्तन किया गया है। "आचारः प्रथमो धर्मः" आचार, चारित्र सबसे पहला धर्म है। विद्या, ज्ञान और शास्त्रज्ञता ये सब उसके विभूषक हैं। ____ अत एव शुद्ध रूप में चारित्र का पालन होता रहे, यह सर्वथा वांछित है। साधु-साध्वी इस दिशा में जागरूक और यत्नशील रहते ही हैं किन्तु कोई भी ऐसी स्थिति उनके सामने न आए जिससे उनके आचार में जरा भी व्याघात हो।
साध्वियों के संबंध में जो विशेष बात कही गई है, जैसा पहले सूचित किया गया है, वह उनके शरीर संस्थान, शक्ति आदि के कारण अपेक्षित है। इसीलिए साध्वियों को कपाटरहित स्थानों में रहना नहीं कल्पता। इसी कारण साध्वियों के लिए ऐसा विधान है कि वे रात्रि में कपाट बंद कर सकती हैं।
कपाट रहित द्वार होने की स्थिति में चिलमिलिका बांधने का विधान किया गया है। जिसका तात्पर्य यह है - एक पर्दा भीतर ताना जाय तथा एक पर्दा बाहर ताना जाय। वह पर्दा ऐसा हो कि बाहर आने-जाने वालों की उन पर दृष्टि न पड़े।
पर्दे के लिए 'प्रस्तार' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह 'प्र' उपसर्ग और 'स्तृ' धातु से
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