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क्रय-विक्रयकेन्द्रवर्ती स्थान में ठहरने का कल्प-अकल्प
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विभाजित हो या जिसके एक ही द्वार हो या निर्गमन या आगमन का एक ही मार्ग हो, साधुसाध्वियों को एक समय में एक साथ प्रवास करना नहीं कल्पता।
११. किसी ऐसे ग्राम यावत् राजधानी में, जो अनेक प्राकारों, अनेक द्वारों या अनेक निर्गमन-आगमन मार्गों से युक्त हो, साधु-साध्वियों को वहाँ एक समय में प्रवास करना कल्पता है।
विवेचन - चारित्रिक शुद्धि, संयम की परिरक्षा, ब्रह्मचर्य की अखण्ड आराधना इत्यादि की दृष्टि से साधुओं और साध्वियों का परस्पर अधिक भिन्न संपर्क, निकटता न रहे, प्रतिकूल जनप्रवाद या लोकापवाद भी न फैले, इस दृष्टि से इस सूत्र में वैसे गाँव आदि में एक समय में आवास करने को अकल्प्य बतलाया गया है।
जहाँ एक प्राकार, एक द्वार एवं एक आगमन-निर्गमन के मार्ग के रूप में स्थानविषयक संकुचितता हो, वहाँ परस्पर मिलने आदि के प्रसंग अपेक्षाकृत अधिक संभावित रहते हैं। यद्यपि साधु-साध्वी यतनाशील और जागरूक होते हैं किन्तु फिर वे हैं तो मानव ही, गृही वर्ग से ही श्रमण जीवन में गए हैं। अतः बार-बार मिलने से किन्हीं में रागात्मक, मोहात्मक, पारस्परिक आकर्षण रूप स्थितियाँ कदाचन आशंकित हैं। अत एव इस सूत्र में वर्णित आवास विषयक कल्प वास्तव में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन परंपरा में चारित्रिक विशुद्धि को अक्षुण्ण रखने की दृष्टि से कितना जोर दिया गया है क्योंकि धर्म तो चारित्रमूल ही है।
भाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या में इन विषयों से संबद्ध विभिन्न पक्षों की, पारस्परिक सन्निकटता से आशंकित दोषों की विस्तार से चर्चा की है, जो जिज्ञासुओं के लिए अध्येतव्य है।
क्रय-विक्रयकेन्द्रवर्ती स्थान में ठहरने का कल्प-अकल्प णो कप्पइ णिगंथीणं आवणगिर्हसि वा रत्थामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा तियंसि वा चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए॥१२॥
कप्पइ णिग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावणंसि वा वत्थए॥१३॥ . भावार्थ - १२. साध्वियों को आपणगृह, रथ्यामुख, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर अथवा अंतरापण में प्रवास करना नहीं कल्पता।।
१३. साधुओं को आपणगृह यावत् अंतरापण में प्रवास करना कल्पता है।
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