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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - दशम दशा xxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
जो संयम, शील, आत्मोपासना या अध्यात्मसाधना को तुच्छ भोगों की कीमत पर खो देना चाहता है, वह बहुत बड़ी भूल करता है। 'सिन्दूर प्रकरण' में कहा गया है -
"स्वर्णस्थाले क्षिपति स रंजः पाद-शौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहयत्यैधभारम्। चिन्तारत्न विकिरति कराद् वायसोड्डायनाथ, यो दुष्प्रापं गमयति मुधा मर्त्य-जन्म प्रमत्तः॥"
जो अपने बहुमूल्य - धर्माराधना योग्य मानव-जीवन को तुच्छ भोग प्राप्ति में गंवा डालता है, वह मानव मूर्खतापूर्वक सोने के थाल का कूड़ा-करकट फेंकने में प्रयोग करता है, श्रेष्ठ हाथी पर मानो लकड़ियों का गट्ठर बांधकर लाता है, कौवे को उड़ाने के लिए मानो कंकड़ की तरह चिन्तामणि फेंकता है।
संयमाराधनामय जीवन के बदले में भोगों की चाह करना, ऐसा ही प्रमादपूर्ण, अज्ञतापूर्ण कार्य है। ___ इस दशा के अन्तर्गत भोगैषणामूलक निदान के अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण चर्चा की गई है, जिसका आशय यह है कि एषणा चाहे किसी भी विषय की हो, स्वीकार्य नहीं है।
श्रमणोपासक या श्रमण जीवन यद्यपि ग्राह्य है, अंशतः आदेय तो है किन्तु साधक के लिए निदान रूप में वांछनीय या संकल्पनीय नहीं है। क्योंकि साधक का परम लक्ष्य मोक्ष है, जो संवर-निर्जरामूलक धर्म पर आश्रित है। सर्वसावधविरति आदि के रूप में साधु संवर का साधक तो है ही, वह स्वाध्याय, ध्यान आदि के रूप में विविध तपश्चरण द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है। संवर के कारण नए कर्मों का निरोध तो हो ही जाता है, निर्जरा द्वारा संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। अतः साधक मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक मात्र कर्मनिर्जरा का ही पथ अपनाए रहता है। "
पशवकालिक सूत्र का निम्नांकित उद्धरण इसका साक्ष्य है -
.... णो इहलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, णो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, जोसिवण्णसहसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, णण्णत्थ णिज्जरट्ठयाए तपनमज्जा ........ . - दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन ९ उद्देशक ४, सूत्र ४
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