SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणोपासक होने का निदान . १४१ kakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk अध्रुव, अनियत, अशाश्व, चलाचल स्वभाव वाले पुनः आगमन वाले तथा पूर्व - पश्चात् अवश्य ही नष्ट होने वाले हैं। यदि मेरे द्वारा सम्यक् रूप में आचरित तप नियम का विशिष्ट फल हो यावत् आगामी भव में शुद्ध मातृ-पितृ पक्षीय उग्रवंशी या भोगवंशी कुल हैं यावत् पुत्र रूप में उत्पन्न होकर श्रमणोपासक बनूं। ___ जीव-अजीव एवं पुण्य-पाप के स्वरूप को, तत्त्व को स्वायत्त करूं एवं (श्रमणों को) प्रासुक, एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य विषयक चतुर्विध आहार से प्रतिलाभित करता हुआ स्थित रहूँ, जीवनयापन करूँ। यही(चिन्तन) मेरे लिए श्रेष्ठ होगा। ____ आयुष्मान् श्रमणो! निर्ग्रन्थ. या निर्ग्रन्थिनी इस प्रकार का निदान कर उसका आलोचन, प्रतिक्रमण किए बिना यावत् आगामी भव में देवलोक में उत्पन्न होते हैं यावत्(पुनः आयु आदि क्षय कर) मनुष्य लोक में उत्पन्न होते हैं से लेकर आपके मुख को क्या अच्छा लगता है तक का वर्णन यहाँ जानना चाहिए। . उस पुरुष को तथारूप - समण-माहण से यावत् धर्म श्रवण करता है(कर सकता है)? - हाँ, सुन सकता है (सुनता है) यावत् क्या वह केवली प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा यावत् . रुचि करता है? ___हाँ, श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है। क्या वह शीलव्रत यावत् पौषधोपवास को ग्रहण करता है? हाँ, वह करता है। क्या वह मुंडित होकर अगार - श्रावक धर्म से अनगार - श्रमण धर्म में प्रव्रजित होता है? नहीं, ऐसा संभव नहीं है। वह श्रमणोपासक होता है, जीव-अजीव का बोध प्राप्त करता है यावत् (विविध आहार से) उनको (श्रमणों को) प्रतिलाभित करता हुआ(सुखपूर्वक) रहता है (जीवनयापन करता है)। ... क्या वह इस प्रकार से अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करता हुआ अनेक भक्तों का छेदन करता है - अनेक उपवासों का प्रत्याख्यान करता है? ____ हाँ, वह रोग आदि उत्पन्न होने अथवा न होने पर भी अनशन द्वारा अनेक भक्तों का छेदन करता हुआ, आलोचन - प्रतिक्रमणपूर्वक समाधिस्थ रहता हुआ कालसमय आने पर काल धर्म को प्राप्त कर अन्य किसी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy