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________________ दर्शन, वंदन हेतु श्रेणिक का गमन ११७ kritiktikdakimaratidaddakadailadkikattatratiktatdadditadkaart तए णं समणे भगवं महावीरे सेणियस्स रण्णो भंभसारस्स चेल्लणादेवीए तीसे य महइमहालियाए परिसाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए मणु(य)स्सपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए जाव धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, सेणि(य)ओ राया पडिगओ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - मजणघरं - स्नानगृह, वरपायपत्तणेउरा - पैरों में सुन्दर नूपुर पहने, कडग - कंगन, खड्डुग - अंगुलीयक (अंगूठी) विशेष, एगावलि - एक लड़ा हार, मरगवतिसरय - रत्नजटित तीन लड़ा हार, वरवलय - सुन्दर हस्ताभरण, हेमसुत्तय - स्वर्णसूत्र - सोने का एक लड़ा हार (स्वर्ण दोरक - सोने का डोरा), चीणंसुयवत्थपरिहियाचीन में निर्मित भव्य रेशमी वस्त्र धारण किए, दुगुल्ल - दुकूल वृक्ष की छाल से निर्मित, सुकुमाल - अत्यन्त कोमल, कंत - कांत - मनोहर, रमणिज - रमणीय, उत्तरिजा - उत्तरीय, उय - ऋतु, चच्चिया - चर्चित - प्रलिप्त किया, वराभरणविभूसियंगी - उत्तम आभूषणों से सुशोभित देह युक्त, सिरिसमाणवेसा - लक्ष्मी के समान वेश वाली, खुजाहिकान्यकुब्ज में उत्पन्न दासियाँ, चिलाइयाहिं - आदिवासी जाति विशेष में उत्पन्न दासियाँ, महत्तरगविंद - महत्तरकवृन्द - अन्तःपुर के विशिष्ट परिरक्षक गण, दुरूहइ - आरूढ होता है, काउं - कृत्वा - करके, महइमहालियाए- अति महनीय तथा विशाल, अणेगसयाए - अनेक शत-सैकड़ों - सैकड़ों। ___भावार्थ - तदनंतर राजा श्रेणिक यानशालिक के मुख से यह सब सुन कर अत्यन्त हर्षित एवं परितुष्ट हुआ यावत् स्नानघर में प्रविष्ट हुआ यावत् कल्पवृक्ष की भाँति अलंकारों से विभूषित हुआ यावत् स्नानगृह से (चन्द्रमा जिस प्रकार बादलों से निकलता है, उस प्रकार प्रियदर्शन राजा श्रेणिक) बाहर निकला। तदनंतर जहाँ उसकी रानी, चेलणा थी, वहाँ आया और आकर उससे इस प्रकार बोला - देवानुप्रिये! आदिकर तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् आत्मानुभावित होते हुए गुणशील चैत्य में पधारे हैं। देवानुप्रिय! उन तथारूप - तप-संयम युक्त अरहंत भगवान् का नाम-गोत्र श्रवण ही (निर्जरा रूप) महाफलदायक है यावत् श्रमण भगवान् महावीर का वंदन, नमन, सत्कार, सम्मान मोक्षदायक होने से कल्याण स्वरूप है, सर्वहित का प्राप्तिकारक होने से मंगलरूप है, भव्यों का आराधन रूप होने से देवस्वरूप है तथा सम्यक् बोधरूप होने से ज्ञान स्वरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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