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________________ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र नवम दशा ******* जो भिक्षु पंचाचार के पालन द्वारा संयम की रक्षा करता है, सर्वोत्कृष्ट - श्रुत - चारित्ररूप धर्म में अपने को स्थिर बनाए रखता है, वह उसी प्रकार अपने दोषों का वमन कर देता है, जिस प्रकार आशीविष सर्प अपने जहर को उगल देता है ॥ ३ ॥ विवेक पूर्वक दोषों का त्यागी, शुद्धात्मा, श्रुत- चारित्ररूप अनुत्तर धर्म का अनुष्ठाता, मोक्ष तत्त्व वेत्ता भिक्षु इस लोक में यश तथा परलोक में सुगति मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार महामोहनीय बंध के हेतु को जानकर, सुदृढ़ आत्मपराक्रमी, परीषहों और उपसर्गों को सहने में समर्थ भिक्षु इस प्रकार महामोहनीय बंध के हेतुओं को जानकर, उनसे सर्वथा विमुक्त होकर जन्म-मरण - भवचक्र को अतिक्रांत कर जाता है अचल, अक्षय, अरूज शिवपद - निःश्रेयस प्राप्त करता है ॥५ ॥ इस प्रकार मोहनीयस्थान नामक नवमी दशा समाप्त होती है। विवेचन - धर्म एवं अध्यात्म की आराधना में परिणामों का अत्यधिक महत्त्व है। जहाँ परिणामों की धारा अत्यन्त निर्मल, उज्वल होती है, वहाँ वर्षों में सफल होने वाला साध्य अल्पतम समय में सिद्ध हो जाता है। शुभ से शुभतर होती, अन्ततः सर्वथा विशुद्धि प्राप्त करती परिणामों की तीव्रतम समुज्ज्वल धारा के परिणामस्वरूप मरुदेवी माता ने क्षणों में अनुत्तर, अनन्त ज्ञान प्राप्त कर लिया, जो सामान्यतः जन्म-जन्मान्तरों में भी सुलभ नहीं होता । उसी प्रकार परिणामों की कलुषता, मलिनता, दूषितता यदि अत्यन्त तीव्र होती है तो उससे बड़े ही वज्रलेपोपम चिकने कर्म बंधते हैं, जिन्हें सिद्धान्त की भाषा में महामोहनीय कहा जाता है। इनका क्षय होना अत्यन्त दुष्कर है। इनके दुष्परिणामों से अनन्त पुद्गल परावर्त पर्यन्त जीव भवचक्र में भ्रमण करता है क्योंकि इनके कारण सम्यग् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र स्वायत्त होना दुर्लभ है। मोक्ष जिसका परम लक्ष्य है, जिसके लिए वह समस्त सांसारिक भोगों का परित्याग कर चुका है, वैसे अत्यन्त दूषित परिणामों से अपने को सर्वदा, सर्वथा बचाए रख सके, भूलकर भी उनमें दुर्ग्रस्त न हो, एतदर्थ स्थविर भगवंतों ने महामोहनीय कर्म के प्रमुख तीस स्थानों, हेतुओं का दिग्दर्शन कराया है। हिंसा, निर्दयता, क्रूरता, कठोरता, पाशविकता का जब अन्तःकरण में उभार होता है तब व्यक्ति दूषित से दूषित, हीन से हीन कर्म करता हुआ भी नहीं सकुचाता । उस समय उसके १०६ *** Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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