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________________ [11] Akaxxxkakakakakakakkakakakakakakakakakakakakkakakakakakkritik एक माह की है। प्रथम प्रतिमा में एक दत्ति आहार और पानी तथा दूसरी में दो दत्ति आहार और पानी इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं, छट्ठी, सातवीं में क्रमशः तीन चार पांच छह और सात दत्ति आहार और पानी लेना कल्पता है। __आठवी, नववीं, दसवीं प्रतिमा सात-सात दिन रात्रि की है जिनमें चौविहार एकान्तर तप करना तथा विशेष आसन से सोने एवं ध्यान करना बतलाया है। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की बतलाई गई । इनमें साधक चौविहार बेला करे, नगर के बाहर जाकर दोनों हाथों एवं घुटनों को लम्बा करके दण्ड की तरह खड़े होकर कायोत्सर्ग करना होता है। बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की जिसमें चौविहार तेले की आराधना की जाती है। नगर के बाहर जाकर एकान्त में दृष्टि किसी पुद्गल पर रख कर कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्ग आने पर संभाव पूर्वक सहन करने पर तीन ज्ञानों (अवधि, मन:पर्वय केवल) से एक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और विचलित होने पर दीर्घकाल तक रोगी हो जाता है, पागल हो जाता है अथवा केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ८. पर्युषणा कल्प - इस दशा का नाम "पर्युषणाकल्प" है, इसका उल्लेख ठाणांग सूत्र के दसवें ठाणे में है। प्रस्तुत आगम में संक्षिप्त में प्रभु महावीर के उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यवन, गर्भ संहरण, दीक्षा, केवलज्ञान तथा स्वाति नक्षत्र में मोक्ष पधारने का वर्णन किया गया है। शेष भाग को व्यविच्छिन माना है। जबकि कुछ मनीषी विद्वानों का मत वर्तमान में उपलब्ध. कल्पसूत्र के समाचारी प्रकरण को दशाश्रुत स्कन्ध की आठवीं दशा मानना है। यह शोध का विषय है। ९. महामोहनीय - इस दशा में महामोहनीय कर्म बन्ध के तीस स्थानों का वर्णन है। जहाँ दुष्ट अध्यवसायों की तीव्रता और क्रूरता के प्रबल परिणाम हो और जिन स्थानों के आचरण से जीव के उत्कृष्ट स्थिति के कर्मों का बन्ध होता है, ऐसे स्थान महामोहनीय स्थान कहलाते हैं। जैसे - त्रस जीव को जल में डुबा कर, मस्तक पर गीला चमड़ा बांध, शस्त्र से छेदन भेदन कर मारना, बहुश्रुत नहीं होते हुए अपने को बहुश्रुत कहना, तपस्वी न होते हुए भी तपस्वी कहना, ब्रह्मचारी न होते हुए ब्रह्मचारी कहना, ज्ञानदाता गुरु का उपहास करना, इसी प्रकार के अन्य स्थानों का क्लिष्ट भावों से सेवन करने से महामोहनीय कर्म का बंध होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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