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________________ ७०. दशाश्रुतस षष्ठ दशा ★★kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk★★★★★★★★★★★★★★★★★★kkkkkkkkkkkkk विवेचन - साधना के क्षेत्र में उपासक शब्द एक विशेष आशय के साथ प्रयुक्त हुआ है। यह शब्द जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परंपराओं में प्राप्त होता है। शाब्दिक विश्लेषण की दृष्टि से 'उप' उपसर्ग, आस' धातु और 'ण्वुल' प्रत्यय के योग से उपासक शब्द बनता है। 'उप' का अर्थ समीप है तथा 'आस' धातु बैठने के अर्थ में है। इसका अभिप्राय यह है, जो गुरु के सान्निध्य में बैठता है, उनसे तत्त्व श्रवण करता है, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रेरणा लेता है, तदनुरूप साधना में जुड़ता है। यह गृही साधक का सूचक है। वैदिक वाङ्मय के अन्तर्गत छान्दोग्योपनिषद् में इसकी बहुत सुन्दर व्याख्या आई है, जो इस प्रकार है - __'स यदा बली भवति, अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति, . परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्टा भवति, श्रोता भवति, मंता भवति, बौद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति। अर्थात् जब गृही के मन में साधना का उत्साह उत्पन्न होता है, तब वह तदर्थ उठता हैउद्यत होता है। उठकर परिचरण करता है - तदनुसार आगे बढ़ता है। परिचरण कर - चलकर गुरु के समीप - सन्निधि में बैठता है। गुरु के तपोमय व्यक्तित्व को देखता है। गुरु की वाणी सुनता है। सुने हुए तत्त्व पर मनन करता है। तब तत्त्वबोध प्राप्त होता है। इसे जीवन में क्रियान्वित करता है। क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप उसे विशिष्ट ज्ञान - सम्यक् बोध प्राप्त होता है। यह उपासना में आगे बढ़ने का क्रम है। जैन परंपरा में गृही उपासक के पूर्व जो श्रमण शब्द लगा है, वह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। 'श्रमण' शब्द का प्राकृत 'समण' है। प्राकृत में तालव्य, मूर्धन्य और दन्त्य - तीनों के . लिए दन्त्य 'सकार' का ही प्रयोग होता है। 'समण' शब्द के प्रारंभ में आए 'सम' के संस्कृत में श्रम, शम और सम - ये तीन रूप होते हैं। श्रम - तपोमूलक साधना का सूचक है। 'शम'- निर्वेद, वैराग्य या प्रशान्त भाव का द्योतक है। 'सम'-समत्व का बोधक है। जिसके जीवन में ये तीनों विशेषताएं होती हैं, वह श्रमण है। व्यावहारिक भाषा में कृत, कारित, अनुमोदित के रूप में सावध कर्म के नवाङ्गी प्रत्याख्यान का धारक श्रमण होता है, वही . छान्दोग्योपनिषद् प्रपाठक - ७, खण्ड - ८, पद - १। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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