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प्रतिक्रमण - मंगलादि सूत्र (चत्तारि मंगलं का पाठ)
मार्ग) में विचरण करता है यानी आत्मा संयम के साथ एकमेक हो जाता है। इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती है और मन आत्मा में रम जाता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण - जो वापस लौटने की प्रक्रिया से चालू हुआ था, वह धीरे धीरे आत्मस्वरूप स्थिति में पहुंच जाता है। यही है प्रतिक्रमण का पूर्ण फल। प्रतिक्रमण की यही है उपलब्धि। ____तीसरे अध्ययन में वंदनापूर्वक गुरुमहाराज के समीप प्रतिक्रमण की प्रतिज्ञा करने की विधि दिखलाई गई है। अब इस चौथे अध्ययन में उसी प्रतिक्रमण को बतलाते हैं। इसमें प्रथम अध्ययन के ध्यान में चिंतित सब पाठों को प्रकट रूप से बोल कर तिक्खुत्तो के पाठ से गुरुदेव को विधि पूर्वक वंदना करके श्रमण सूत्र की आज्ञा लेते हैं। नमस्कार सूत्र, करेमि भंते का पाठ बोलने के बाद मांगलिक पाठ बोलने की विधि है, जो इस प्रकार है -
__मंगलादि सूत्र (चत्तारि मंगलं का पाठ) . चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू
लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहते · सरणं पव्वजामि, सिद्धे सरणं पव्वजामि, साहू सरणं पव्वजामि,
केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वजामि। (अहँतों का शरणा, सिद्धों का शरणा, साधुओं का शरणा, केवली-प्ररूपित धर्म का शरणा।)
ये चार मंगल चार उत्तम चार शरणा और न दूजा कोय।
जो भव्य प्राणी आदरे, तो अक्षय अमर पद होय। . कठिन शब्दार्थ - चत्तारि - चार, अरहंता - अर्हत, मंगलं - मंगल, सिद्धा - सिद्ध, साहू - साधु, केवलिपण्णत्तो - केवलि प्ररूपित, लोगुत्तमा - लोकोत्तम, सरणं - शरण को, पव्वजामि - ग्रहण करता हूँ।
भावार्थ - चार मंगल हैं - अर्हन्त भगवान् मंगल हैं, सिद्ध भगवान् मंगल हैं, साधुमहाराज मंगल है, सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म मंगल हैं। चार लोक - संसार में उत्तम - श्रेष्ठ हैं - अर्हन्त भगवान् लोक में उत्तम हैं, सिद्ध भगवान् लोक में उत्तम हैं, साधु महाराज लोक में उत्तम हैं, केवली प्ररूपित धर्म लोक में उत्तम हैं। मैं चार की शरण स्वीकार करता हूँ -
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