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________________ वंदणंणामं तइयं अज्झयणं वंदना नामक तृतीय अध्ययन उत्थानिका - चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरे अध्ययन में तीर्थंकर देवों की स्तुति की गयी है। देव के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही है। तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्ररूपित धर्म का उपदेश निर्ग्रन्थ मुनिराज ही देते हैं अतः तीसरे अध्ययन में गुरुदेव को वंदन किया जाता है। मन, वचन, काया का वह शुभ व्यापार जिसके द्वारा गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता हैं, 'वंदन' कहलाता है। जो साधु द्रव्य और भाव से चारित्र संपन्न है। जिनेश्वर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलते हुए जिन प्रवचन का उपदेश देते हैं वे ही सुगुरु हैं। आध्यात्मिक साधना में सदैव रत रहने वाले त्यागी-वैरागी शुद्धाचारी संयमनिष्ठ सुसाधु ही वंदनीय पूजनीय होते हैं। ऐसे सुसाधुगुरु भगवंतों को भावयुक्त उपयोग पूर्वक निःस्वार्थ भाव से किया हुआ वंदन कर्म निर्जरा और अंत में मोक्ष का कारण बनता है। इसके विपरीत भाव चारित्र से हीन द्रव्यलिंगी-कुसाधु अवंदनीय होते हैं। संयमभ्रष्ट वेशधारी कुसाधुओं को वंदन करने से कर्मनिर्जरा नहीं होती अपितु कर्मबंधन का कारण बनता है। सुगुरुओं को यथाविधि वंदन करने से विनय की प्राप्ति होती है। अहंकार का नाश होता है। वंदनीय में रहे हुए गुणों के प्रति आदरभाव होता है। तीर्थंकर भगवंतों की आज्ञा का पालन होता है। वंदना करने का मूल उद्देश्य ही नम्रता प्राप्त करना है। नम्रता अर्थात् विनय ही जिनशासन का मूल है। उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन २९ में गौतमस्वामी भगवान् महावीर प्रभु से पूछते हैं कि - वंदणएणं भंते! जीवे कि जणयइ? हे भगवन्! वंदना करने से आत्मा को क्या लाभ होता है? उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि "वंदणएणं णीयागोयं कम खवेइ, उच्चागोयं कम्मं णिबंधइ, सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं णिवत्तेड़, दाहिणभावं च णं जणयह।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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