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परिशिष्ट तृतीय आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा
१. आवश्यक का शब्दार्थ (अ) 'अवश्यं करणाद् आवश्यकम्' - अर्थात् जो अवश्य किया जाय वह आवश्यक है। साधु और श्रावक दोनों ही नित्यप्रति अर्थात् दिन और रात्रि के अन्त में सामायिकादि की साधना करते हैं अतः वह साधना आवश्यक कहलाती है। अनुयोगद्वार सूत्र में भी कहा है -
समणेण सावएण य, अवरस कायव्वयं हवइ जम्हा। अंतो अहो-निसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम॥
___ (आवश्यक वृत्ति गाथा २ पृष्ठ ५३) (आ) 'आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या आवस्सयं' - अर्थात् प्राकृत भाषा में आधारवाचक आपाश्रय शब्द भी 'आवस्सय' कहलाता है। जो. गुणों की आधारभूमि हो, वह आवस्सय-आपाश्रय है। आवश्यक आध्यात्मिक समता, नम्रता, आत्म-निरीक्षण आदि सद्गुणों का आधार है, अतः वह आपाश्रय भी कहलाता है।
(३) 'गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति' - जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर गुणों के अधीन करे, वह आवश्यक है। अथवा - 'ज्ञानादि गुणानाम् आसमन्ताद्वश्या इन्द्रिय कषायादि भावशत्रवो यस्मात् तद् आवश्यकम्।' - अर्थात् आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि - इन्द्रिय और कषाय आदि भाव शत्रु जिस साधना के द्वारा ज्ञानादि गुणों के वश्य किये जायँ अर्थात् पराजित किये जायँ, वह आवश्यक है।
(ई) ज्ञानादि गुण कदम्बकं मोक्षो वा आसमन्ताद् वश्यं कि यतेऽनेन इत्यावश्यकम् - अर्थात् ज्ञानादि गुण समूह और मोक्ष पर जिस साधना के द्वारा अधिकार किया जाय, वह आवश्यक है।
(3) गुणशून्यमात्मानं गुणैरावासयति इति आवासकम् - अर्थात् गुणों से शून्य आत्मा को जो गुणों से वासित करे, वह आवासक (आवश्यक) है। गुणों से आत्मा को वासित करने का अर्थ है - गुणों से युक्त करना।
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