SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिक्रमण - तेतीस बोल का पाठ २७. समय साधना काल के प्रत्येक क्षण को सार्थक करना, जिस समय जो अनुष्ठान करने का हो वही करना । समय को व्यर्थ नहीं खोना । २८. ध्यान संवर योग- मन, वचन और काया के अशुभ योगों का संवरण करके शुभ ध्यान करना । २९. मारणान्तिक उदय दृढ़तापूर्वक साधना करते रहना । ३०. संयोग ज्ञान - इन्द्रियों अथवा विषयों का संयोग, अथवा बाह्य संयोग को ज्ञान से हेय जान कर त्यागना । ३१. प्रायश्चित्त - लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त करके शुद्ध होना । ३२. अन्तिम साधना - - Jain Education International मृत्यु का समय अथवा मारणान्तिक कष्ट आ जाने पर भी १०३ अन्तिम समय में संलेखना कर के पण्डित मरण की आराधना करना । उपरोक्त योग-संग्रह में सभी प्रकार की उत्तम करणी का समावेश हो जाता है । इस प्रकार बत्तीस योग-संग्रह से आत्मा को उज्ज्वल करने वाले संत प्रवर, संसार के लिए मंगल रूप हैं। 'आयः आसायंणाहिं (आशातना) आशातना शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिं लक्षणस्तस्य शातना - खण्डनं निरुक्तादाशातना ।” सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन करना है। गुरुदेव आदि पूज्य पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की शातना - खण्डना होती हैं। आशातना के तेतीस भेद इस प्रकार हैं - १. अरहंताणं आसायणाए (अर्हन्तों की आशातना) कोई भी जीव राग-द्वेष से रहित नहीं हो सकता, अतः अर्हन्त भी रागद्वेष से मुक्त नहीं है । " अर्हन्त ने सर्वज्ञ होते हुए भी पूर्ण समाधान नहीं दिया।" "इतने कठोर विधान बनाने वाले अर्हन्त दयालु कैसे कहे जा सकते हैं?" आदि कहना एवं उनकी आप्तता आदि में संशय करना अर्हन्त आशातना है । २. सिद्धाणं आसायणाए (सिद्ध आशातना) 'सिद्ध की क्या कृतकृत्यता है ' 'एक स्थान में अनंतकाल तक रूके रहना भी क्या सिद्धि है ?' सिद्ध है ही नहीं ? 'जब शरीर ही नहीं हैं तो फिर उनको सुख किस बात का ?' या सिद्धत्व में क्या सुख है ? इत्यादि रूप से अवज्ञा करना सिद्ध आशातना है । For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy