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________________ रूकता उसकी (अध्यात्म की) वृद्धि करने वाली है (तथा) जागरूकता (ही) निरपेक्ष सुख को उत्पन्न करने वाली है । 157. (व्यक्ति) जागरूकतापूर्वक चले, जागरूकतापूर्वक खड़ा रहे, जागरूकतापूर्वक बेठे, जागरूकतापूर्वक सोये ( ऐसा करता हुआ तथा ) जागरूकतापूर्वक भोजन करता हुआ (और) बोलता हुआ (व्यक्ति) अशुभ कर्म को नहीं बांधता है । 158. ज्ञान से ध्यान की सिद्धि (होती है); क्षय (होता है); ( कर्मों के) क्षय का लिए ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए । ध्यान से सब कर्मों का फल मोक्ष ( है ) ; इस 159. ज्ञानमय वायु से युक्त (तथा) शील द्वारा जलाई गई तपमय अग्नि संसार को उत्पन्न करने वाले बीज को भस्म कर देती है, जैसे कि दावाग्नि (जंगल की आग ) तृरण राशि को ( भस्म ) कर देती है) । 160. जैसे जल के संयोग होने पर लवरण विलीन हो जाता है, ( वैसे ही ) जिसका चित्त ध्यान में (विलीन हो जाता है), उसके (जीवन में ) शुभ-अशुभ (कर्म) को भस्म करने वाली आत्माग्नि (आत्मानुभवरूपी अग्नि) प्रकट होती है । 161. चित्त ( जिसके द्वारा ) ध्यान प्राप्त किया गया ( है ), ( वह ) कषाय (राग-द्व ेष) से उत्पन्न ईर्ष्या (जलन), निराशा, अफसोस आदि मानसिक कष्टों (तनावों) द्वारा परेशान नहीं किया जाता है । चयनिका ] Jain Education International For Personal & Private Use Only [ 59 www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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