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संयमित की हुई इन्द्रियों के कारण आसक्तिरूपी शत्रु (विवेकी मनुष्य के) मन को विचलित नहीं करता है, (जैसे) औषधियों द्वारा नष्ट किया हुआ व्याधिरूपी शत्रु
(व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करता है)। 152. जब तक (किसी को) बुढ़ापा नहीं सताता है, जब तक (किसी
के) रोग नहीं बढ़ता है, जब तक (किसी की) इन्द्रि याँ क्षीण नहीं होती है, तब तक (उसको) धर्म (आध्यात्मिकता) का
आचरण कर लेना चाहिए। . 153. (अपने तथा समाज के विकास के लिए) जन्म, मरण और
बुढापे से रहित अर्हन्तों द्वारा (इस) जगत् में दो ही मार्ग (जीवन पद्धतियाँ) कहे/कही गये/गई (हैं) । (एक मार्ग का पथिक) अच्छा श्रमण (कहा गया है) और (दूसरे मार्ग का
पथिक) अच्छा श्रावक (कहा गया है)। 154. श्रावक धर्म (गृहस्थ जीवन) में दान और आध्यात्मिक
व्यक्तियों की भक्ति प्रमुख होती है। उस (एक) के बिना (भी) (व्यक्ति) श्रावक नहीं (कहे जाते हैं)। श्रमण-धर्म में ध्यान और स्वाध्याय प्रमुख (होता है)। उसी प्रकार उस (एक)
के बिना व्यक्ति (श्रमण) भी नहीं (कहा जाता है)। 155. जो दान चार प्रकार का कहा जाता है, (उसका) विभाजन,
आहार, औषध, शास्त्र तथा अभय के रूप में है । वह (दान) दिया जाना चाहिए। (ऐसा) उपासकाध्ययन में वर्णित (है)।
156. निश्चय ही जागरूकता अध्यात्म की माता (है), निश्चय
ही जागरूकता अध्यात्म की रक्षा करने वाली (है), जाग
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