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146. जिस प्रकार ( योगी के द्वारा) शुभ कर्म ( शुभ मानसिक तनाव ) से अशुभ कर्म ( अशुभ मानसिक तनाव) रोका गया ( है ), उसी प्रकार शुद्ध अनुभव ( श्रात्मानुभव) से शुभ कर्म ( शुभ मानसिक तनाव ) भी ( रोका गया है) । इसलिए इस क्रम से ही योगी निज ( शुभ व शुद्ध) स्वरूप का ध्यान करे ।
147. जिन - सिद्धान्त में ( यह कहा गया है कि ) आहार, आसन और निद्रा पर विजय प्राप्त करके और ( आत्मा को ) गुरु- कृपा से समझकर निज प्रात्मा ध्यायी जानी चाहिए ।
148. गुरु और अनुभवी की सेवा, अज्ञानी ( विकृत बुद्धिवाले) मनुष्य का पूर्णरूप से त्याग, स्वाध्याय और एकान्तवास, सूत्र के अर्थ का सम्यक् चिन्तन तथा धैर्य - ( इन सबका एकीकरण) उसका (समता की प्राप्ति का ) साधन ( है ) |
149. समाधि का इच्छुक तपस्वी श्रमरण परिमित एवं ग्रहण करने योग्य माहार को चाहे, (ऐसे) साथी को चाहे (जो ) विवेकपूर्ण प्रयोजन और समझ ( रखता हो ) तथा ( वह) विवेक से ( जाने गये) उपयुक्त स्थान की चाहना करे ।
150. जो मनुष्य ( साधना के लिए) हितकारी आहार से, ( हितकारी में भी) सीमित आहार से और (सीमित में भी) अल्प आहार से ( सन्तुष्ट होते हैं), उनको चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ने के (कारण) उनकी वैद्य चिकित्सा नहीं करते हैं । वें ( सचमुच ) ( अपने ) मन के (ही) चिकित्सक होते हैं ।
151. विकृतियों से रहित आवास के कारण तथा नियन्त्रित आसन के कारण, अल्प मात्रा में आहार ( करने) के कारण (और)
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