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और दुःख (मूलतः) समान समझ लिया गया है, (उस ऐसे श्रमण का भाव) शुद्धोपयोग कहा गया है।
141. शुद्धोपयोगी की (अवस्था) ही श्रमणता कही गई (है), शुद्धो
पयोगी की (अवस्था) (ही) आध्यात्मिक जागृति और(प्राध्यात्मिक) ज्ञान (बताया गया) (है); शुद्धोपयोगी की (अवस्था) ही निर्वाण (परम शान्ति) (बताई गई है)। वह ही (जीवन में) सर्वोच्च को प्राप्त करने वाला (माना गया है), (इसलिए) उसके लिए मेरा नमस्कार (है)।
142. शुद्ध-उपयोग (आत्मानुभव) से विभूषित (व्यक्तियों) का सुख
श्रेष्ठ, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त तथा अविच्छिन्न (होता है)।
143. जिस साधु के लिए सुख-दुःख (मूलतः) (समान होते हैं),
(उसमें) किसी भी वस्तु के प्रति राग-द्वेष नहीं होता है और (उसमें) आध्यात्मिक विस्मृति (भी नहीं रहती है) (तथा) (उसमें) न शुभ (कर्म) और न (ही) अशुभ कर्म प्रवेश
करता है। 144. आंतरिक शुद्धि से बाह्य शुद्धि भी आवश्यक रूप से होती है,
- प्रांतरिक अशुद्धि से ही मनुष्य बाह्य दोषों को करता है।
145. कामुकता, अहंकार, मायाचार और लोभ से रहित (मानसिक)
___ अवस्था (जब) (होती है), (तो) भावों में निर्मलता (रहती - है)। सर्वज्ञों द्वारा मुक्तिगामी (जीवों) के लिए (यह बात)
कही गई है। . . . चयनिका ]
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