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135. चरित्रहीन (व्यक्ति) के द्वारा अति-अधिक रूप से भी पढा
हुआ श्रुत क्या (प्रयोजन) सिद्ध करेगा ? जैसे कि अन्धे (व्यक्ति) के द्वारा जलाए गए भी लाखों-करोडों दीपक
(उसके लिए) क्या प्रयोजन सिद्ध करेंगे? 136. जो चरित्र-युक्त (है), (वह) अल्प शिक्षित होने पर (भी)
विद्वान् (व्यक्ति) को मात कर देता है; किन्तु जो चरित्रहीन
(है), उसके लिए बहुत श्रुत-ज्ञान से (भी) क्या लाभ (है) ? 137. निश्चयनय के अनुसार यह इस प्रकार (कहा गया है) (कि)
(जब) आत्मा अपनी आत्मा में खूब लीन (होता है) (तो) वह (लीनता) निश्चय ही सम्यक् चारित्र (होता है) । वह
योगी (जो ऐसा करता है) परम शान्ति प्राप्त करता है। 138. जो (व्यक्ति) सम्पूर्ण आसक्ति से रहित (है) और आत्मा में
एकाग्रचित्त (है), वह व्यक्ति (ही) स्वभाव से आत्मा को जानता-देखता है (और) (वह) निश्चय ही आध्यात्मिक
चारित्र का आचरण करता है। 139. निस्संदेह चारित्र (ही) धर्म (कहा गया है)। जो समता (है),
वह (भी) निश्चय ही धर्म कहा गया (है)। (समझो कि) मोह (आध्यात्मिक विस्मरण) और क्षोभ (हर्ष-शोकादि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्ति) से रहित आत्मा का भाव ही समता है।
(अतः चारित्र और समता में समानता है)। 140. श्रमण (जिसके द्वारा) तत्व (अध्यात्म) (तथा) (उसके
प्रेरक) सूत्र ग्रन्थ भली प्रकार से जान लिए गए (हैं), (जो) - संयम और तप से संयुक्त हैं, (जिसके द्वारा) राग (आसक्ति)
समाप्त कर दिया गया । (जिसके द्वारा) सुख चयनिकाः ]
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