________________
111. व्रतों और तपों (शुभ कर्मों) के कारण (मिला हुआ) स्वर्ग
(मनुष्य के लिए) (नरक से) अधिक अच्छा होता है, (जिससे) (मनुष्य के जीवन में) (कम से कम) दुःख (तो) न रहे। (सच है कि) (उनके) विरोधी (अशुभ कर्मों को) (करने) के कारण नरक में (दु:ख) (रहेगा) (ही)। (ठीक ही है) प्रतीक्षा करते हुए (व्यक्तियों) के लिए (शुभकर्मरूपी)
छाँह और (अशुभ-कर्मरूपी) धूप में ठहरे हुए होने के कारण ... बड़ा भारी भेद (होता है)। 112. निस्सन्देह (व्यक्ति द्वारा) (शुभ भावों से) चक्रवर्ती सम्राट
का (ऐसा) प्रचुर राज-वैभव प्राप्त किया जाता है (जो) विद्याधरों, देवों और मनुष्यों द्वारा हाथों से नमस्कार की पंक्तियों के जरिये प्रशंसा की गई है। (किन्तु) अध्यात्मवादी का अनुसरण करने वाली जागृति (केवल) (शुभ भावों
से) (प्राप्त नहीं की जाती है)। 113. जो चारित्र के बिना ज्ञान का (अभ्यास करता है), (जो)
आध्यात्मिक जागृति के बिना मुनि-वेष (अपनाता है) और जो मन की एकाग्रता के बिना तपस्या करता है, (वह) (सब) उस (व्यक्ति) के लिए निरर्थक (होता है)।
114. अनाध्यात्मवादी के (जीवन में) (सम्यक्) ज्ञान उत्पन्न नहीं
होता है। (सम्यक् ) ज्ञान के बिना चारित्र में विशिष्टताएँ (उत्पन्न नहीं होती हैं)। चारित्ररहित (व्यक्ति) के लिए (कर्मों से) छुटकारा (संभव) नहीं होता है। (कर्मों से) छुटकारे-रहित (व्यक्ति) के लिए (जीवन में) समता (घटित) नहीं (होती है)।
चयनिका ]
[
41
Jain Education International
.
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org