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106. शुभ भाव पुण्य (है); अशुभ भाव पाप है । इस प्रकार यह
अन्य (दर्शनों) में भी कहा गया (है) । (किन्तु) जिन-सिद्धान्त में (यह भी कहा गया है कि) (चूकि) (शुभ-अशुभ) भाव दूसरे पर अश्रित होता है (इसलिए) (उसे) दुःख-नाश का
कारण नहीं (कहा जा सकता है)। '07. जो (मनुष्य) पुण्य (उचित) क्रिया शुभ मानसिक तनाव)
को ही खूब चाहता है, उसके द्वारा लौकिक जिन्दगी चाही हुई होती है । पुण्य (उचित क्रिया) सुखी अवस्था का कारण (है)। (किन्तु) (पाप-सहित) पुण्य (शुभ मानसिक तनाव)
के नाश से ही परम शान्ति (समता) (घटित होती है)। 108. (नीति-शास्त्र के अनुसार) अशुभ कर्म अनुचित (होता है)
(और) शुभ कर्म उचित (होता है)। (कर्मों के इस भेद को) (तुम) समझो। (किन्तु) (अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार) वह (शुभ कर्म) उचित कैसे बना रहेगा जो संसार (मानसिक तनाव) में प्रविष्ट कराता है ? :
109. जैसे काले लोहे से बनी हुई. बेड़ी व्यक्ति को बांधती है और
सोने की (बेड़ी) भी (व्यक्ति को) (बांधती है), वैसे ही (जीव के द्वारा) किया हुआ (मानसिक व्यग्रतात्मक) शुभ
अशुभ कर्म भी जीव को बांधता है। 110. इसलिए तो (दोनों) कुशीलों (मानसिक तनाव उत्पन्न करने
वाले कर्मों) के साथ बिल्कुल राग मत करो और (उनके साथ) सम्पर्क (भी) मत (रक्खो), क्योंकि (आत्मा का) स्वतन्त्र (स्वभाव) कुशीलों के साथ सम्पर्क और (उनके साथ) राग से व्यर्थ (हो जाता है)।
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