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________________ 89. कुशल-बुद्धि विद्वान् तथा जागा हुआ (माध्यात्मिक) (जीवन) जीने वाला (व्यक्ति) सोए हुओं (अध्यात्म को भूले हुए व्यक्तियों) पर भरोसा न करे; समय के क्षण निर्दयी (होते हैं), शरीर निर्बल (है), अतः (वह) अप्रमादी (जागृत) भारण्ड-पक्षी की तरह विचरण करे। 90. अज्ञानी (व्यक्ति) (प्रासक्त) कर्म से कर्म-(रज) को नष्ट नहीं करते हैं। ज्ञानी (व्यक्ति) अकर्म (अनासक्त कर्म) से कर्म-(रज) को नष्ट कर देते हैं। मेघावी लोभ और मद से परे गये हुए होते हैं; संतोषी (व्यक्ति) पास नहीं करते हैं। 91. आलस्य के साथ सुख नहीं (रहता है), निद्रा के साथ विद्या (संभव) नहीं (होती है), आसक्ति के साथ वैराग्य (घटित) नहीं (होता है),(तथा) जीव-हिंसा के साथ दयालुता नहीं (ठहरती है)। 92. हे मनुष्यों ! तुम (सब) निरंतर जागो (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग रहो), जागते हुए (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग) (व्यक्ति). की प्रतिभा बढ़ती, है, जो (व्यक्ति) सोता है . (आध्यात्मिक मूल्यों को भूला हुआ है), वह सुखी नहीं होता . है, जो सदा जागता है (आध्यात्मिक मूल्यों में सगज है), वह सुखी होता है। 93. अविनीत के (जीवन में) अनर्थ (होता है) और विनीत के .. (जीवन में) समद्धि (होती है); जिसके द्वारा यह दोनों प्रकार से जाना हुआ (है), वह (जीवन में) विनय को ग्रहण करता है। चयनिका ] [ 33 . Jain Education International Ma/. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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