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83. प्राणियों की हिंसा करो और (उनकी) हिंसा न भी करो,
(किन्तु) (हिंसा के) विचार से (ही) (कर्म)-बंध (होता है)। निश्चयनय के (अनुसार) यह जीवों · के (कर्म)-बंध का
संक्षेप (है)। 84. आत्मा ही अहिंसा (है); आत्मा ही हिंसा (है); जो अप्रमादी
होता है, (वह) अहिंसक (होता है)। (जो) प्रमादी (होता है), (वह) हिंसक (होता है) । आगम में (ऐसा) स्थिर मत (व्यक्त
किया गया है)। 85. जैसे जगत में मेरु पर्वत से ऊँचा (कुछ) नहीं (है), (और)
आकाश से विस्तृत (भी) (कुछ) नहीं (है), वैसे ही अहिंसा के समान (जगत में) (श्रेष्ठ और व्यापक) धर्म नहीं (है); (यह)
(तुम) जानो। 86. यह (वस्तु) मेरी है और यह (वस्तु) मेरी नहीं (है), यह मेरा.
कर्तव्य (है) और यह (मेरा) कर्तव्य नहीं (है); इस प्रकार ही बारंबार बोलते हुए उस (व्यक्ति) को काल ले जाता है, अतः
कैसे प्रमाद (किया जाय)? .. 87. सोते हुए (प्रमादी) पुरुषों के (लोकातीत) परमार्थ (और)
लोकं में सर्वोत्तम प्रयोजन (दोनों ही) नष्ट हो जाते हैं;
इसलिए जागते हुए (प्रमाद-रहित हुए) तुम (सब) पुराने कर्मों _ को नष्ट करो। 88. धर्मात्माओं का जागरण (सक्रिय होना) और अधर्मात्माओं का - सोना (निष्क्रिय होना) सर्वोत्तम (होता है); (ऐसा) वत्स देश
के राजा की बहिन जयंती को जिन (महावीर) ने कहा था। चयनिका ].
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