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________________ 47. 48. 49. 50. सत्य (बोलने) में तप होता है, सत्य ( बोलने) में संयम होता है, तथा (सत्य बोलने में ) शेष (अन्य ) सद्गुण भी ( पालित) (होते हैं) । पुन: सत्य ( बोलना ) ही (सब) सद्गुणों का आधार होता है), जैसे मछलियों के लिए (आधार) जल का भंडार (होता है) । लोभी मनुष्य के लिए कदाचित् कैलाश (पर्वत) के समान गोने-चाँदी के असंख्य पर्वत भी हो जाएँ, किन्तु उनके द्वारा ( उसकी ) कुछ ( भी ) ( तृप्ति) नहीं ( होती है), क्योंकि इच्छा काश के समान अन्त - रहित (होती है ) । जो पूर्ण संतोषरूपी जल से तीव्र लोभ रूपी मल समूह को धोता है, तथा ( जो ) भोजन में प्रासक्ति से रहित है, उस (व्यक्ति) के ( जीवन में ) निर्मल शौच (धर्म) होता है । इन्द्रिय-भोग (तथा) कषायों में संयम भाव को धारण करके जो ध्यान (और) स्वाध्याय के द्वारा आत्मा का चिंतन करता है, उसके (जीवन में) नियम से तप होता है । 51. जो सब वस्तुओं में आसक्ति को त्यागकर वैराग्य के तीनों' ( साधनों ) का चिन्तन करता है, उस (व्यक्ति) के ( जीवन में) त्याग घटित होता है । इस प्रकार (यह ) अरहन्तों द्वारा कहा गया है । 52. जो प्राप्त किए गए मनोहर और प्रिय भोगों को पीठ करता है ( तथा ) स्व-प्रधीन भोगों को छोड़ता है, वह ही त्यागी है, इस प्रकार कहा जाता है । 1. संसार, शरीर तथा इन्द्रिय-विषय- इन तीनों की नश्वरता का चिन्तन । चयनिका ] Jain Education International For Personal & Private Use Only [ 19 www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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