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29 (कहीं) जीव कर्मों के अधीन (होते हैं), (तो) कहीं कर्म
जीव के अधीन (होते हैं); (जैसे) कहीं साहूकार बलवान् (होता है), तो कहीं कर्जदार बलवान् (होता है)।
___30. जीव मिथ्यात्व (सत्य पर अश्रद्धा) को भोगता हुआ विपरीत
दृष्टिवाला होता है; फिर (वह) धर्म को भी नहीं चाहता है, जैसे ज्वर-ग्रस्त (व्यक्ति) मधुर भी रस को (नहीं चाहता है)।
31.
मिथ्यात्व (सत्य पर अश्रद्धा) के द्वारा परिवर्तित आत्मा तीव्र कषाय से अत्यन्त ग्रस्त (होता है), (तथा) (वह) जीव (और) देह को एक मानता हुअा बहिरात्मा होता है।
32.
राग और द्वेष कर्म का मूल कारण (है)। कर्म मोह (आध्यात्मिक विस्मृति) से भी उत्पन्न होता है। (ऐसा) (जिन) कहते हैं । निश्चय ही जन्म-मरण का मूल कर्म (है)। निस्सन्देह जन्म-मरण (दोनों) ही दुःख (हैं) । (ऐसा) (जिन) कहते हैं।
33. अत्यन्त: ही अपमानित तथा समर्थ भी शत्रु वह (हानि)
उत्पन्न नहीं करता है, जो दोनों ही अनियन्त्रित राग और द्वष उत्पन्न करते हैं।
34. चूंकि जन्म-जरा-मरण के दुःख से पीड़ित जीव के लिए ... संसार में बिलकुल सुख नहीं है, अतः (उसके लिए) मोक्ष
(परम-शान्ति का मार्ग) स्वीकार किए जाने योग्य (है)।
चयनिका ]
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