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________________ 23. 24. 25. 26. 27. जो जीव सचमुच संसार ( मानसिक तनाव ) में स्थित (होता है ), ( उसमें ) उस कारण से ही (अशुद्ध ) भाव - ( समूह ) उत्पन्न होता है । (अशुद्ध ) भाव - (समूह) से कर्म ( उत्पन्न होता है) और कर्म से गतियों में गमन होता है । 1. ( किसी भी ) गति में गए हुए जीव से देह ( उत्पन्न होता है); देह से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । उनके ( इन्द्रियों के) द्वारा ही विषयों का ग्रहण ( होता है) । ( औौर) उस कारण से (जीव में) राग और द्व ेष (उत्पन्न होता है ) । इस प्रकार जीव के आवागमन के समय ( उसमें ) मनोभाव - (समूह) उत्पन्न होता है (जो ) या (तो) आदि और अन्तरहित ( होता है) या अन्त - सहित होता है । यह अर्हन्तों द्वारा कहा गया ( है ) । जन्म दुःख ( है ) और बुढ़ापा ( बार - बार ) मरण (दु:ख हैं); जहाँ पर प्रारणी दुःखी होते हैं । दु:ख ( है ) ; बीमारियाँ और खेद ! संसार ही दुःख है, जिस-जिस समय में जीव जिस-जिस भाव से युक्त होता है, उस-उस समय में वह ( भावानुसार ) शुभ-अशुभ कर्म को बाँधता है । 28. ( जब व्यक्ति) कर्म को चुनते हैं, (तो) ( वे) स्वाधीन (होते हैं); किन्तु उसके विपाक' में (वे) पराधीन होते हैं; (जैसे ) ( जब कोई ) पेड़ पर चढ़ता है (तो) (वह) स्वाधीन (होता है ), ( किन्तु ) ( जब) उससे गिरता है, (तो) वह पराधीन (होता है) । सुख-दुख रूप कर्म - फल । चयनिका ] Jain Education International For Personal & Private Use Only [ 11 www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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