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________________ जैनन्यायपञ्चाशती जाता है। इस व्यवसायात्मक ज्ञान का ग्रहण 'मैंने घट को जान लिया' इस अनुव्यवसाय से होता है। यह प्रत्यक्षप्रमाण का क्रम है। जैनन्याय में तो इन्द्रिय और मन से होने वाला यह ज्ञान परोक्षप्रमाण के रूप में स्वीकृत है। इस विषय में क्षणिकवादी बौद्धों का कहना है कि ज्ञान विषय से पैदा होता है। इसका भाव यह है कि विषय से उत्पन्न ज्ञान विषयाकार हो जाता है और विषयाकार हुआ ज्ञान ही विषय को प्रकाशित करता है। जो ज्ञान विषयाकार नहीं होता वह वस्तु का प्रकाश भी नहीं करता।' कारिकाकार ने इस मत का निराकरण कि या है। उनके अनुसार ज्ञान अर्थ में प्रवेश नहीं करता और अर्थ भी ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होता। ज्ञान अर्थाकार भी नहीं होता और ज्ञान अर्थ से उत्पन्न भी नहीं होता। ज्ञान वस्तुरूप भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान और अर्थ इन दोनों का पूर्ण अभेद नहीं है। प्रमाता ज्ञानस्वरूप है, इसलिए वह विषयी है। अर्थ ज्ञेयस्वभाव है, इसलिए वह विषय है। ये दोनों स्वतन्त्र हैं, फिर भी ज्ञान में अर्थबोध करने की तथा अर्थ में ज्ञान द्वारा ज्ञात होने की क्षमता है। इस रीति से इन दोनों में कथंचित् अभेद भी है। वास्तव में तो ज्ञान और अर्थ का विषय-विषयीभाव सम्बन्ध है। . . (२६) सम्प्रति लोहोपलदृष्टान्तेन ज्ञानस्यार्थप्रकाशकत्वं दर्शयतिअब चुम्बक के दृष्टान्त के द्वारा ज्ञान के अर्थप्रकाशकत्व को बता रहे हैं __ आकर्षति यथा लोहं शक्तिलॊहोपलस्य हि। तथा ज्ञानस्य शक्तिश्च वार्यते केन धीमता ॥२६॥ जैसे चुम्बक की शक्ति दूरस्थ लोहे को अपनी ओर खींच लेती है, वैसे ही ज्ञान की शक्ति ज्ञेय को दूर से ही ग्रहण कर लेती है। कौन बुद्धिमान् व्यक्ति इसका निरसन कर सकता है? न्यायप्रकाशिका लोहोपलं (चुम्बक इति लोके प्रसिद्धम् ) स्वस्मिन् वर्तमानया शक्त्या दूरस्थमपि लोहम् आकर्षति-स्वसमीपम् आनयति तथैव ज्ञानमपि स्वनिष्ठया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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