________________
जैनन्यायपञ्चाशती
47 कहा जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी स्मृति के विषय में इसी प्रकार कहा है'वासनोबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः।' वासना का अर्थ है-संस्कार, उसका जागरण होना ही जिसका हेतु है वही स्मृति है। इसके समानार्थक ही स्मृति का लक्षण न्यायदर्शन में भी उपलब्ध होता है। वहां कहा है-'संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।' अर्थात् संस्कारमात्र से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है। इस लक्षण में यदि 'मात्र' इस पद का प्रयोग न हो तो 'संस्कारजन्य ज्ञान' यही स्मृति का लक्षण हो जाएगा और वह लक्षण प्रत्यभिज्ञा में भी चला जाएगा, वह अतिव्याप्ति दोष होगा, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा भी संस्कारजन्य होती है। अतः इस लक्षण में मात्र' पद को रखना आवश्यक ही है। इस प्रकार के विविध लक्षणों से यहां यह ज्ञात होता है कि स्मृति संस्कार से उत्पन्न होती है। • प्रत्यभिज्ञा-स्मृति के पश्चात् अब 'प्रत्यभिज्ञा' पूर्वकारण सापेक्ष कैसे होती
है, इस पर विचार किया जा रहा है। इक्कीसवीं कारिका में लिखा है कि 'तदिदं पुनः अपेक्षते प्रत्यभिज्ञा' अर्थात् प्रत्यभिज्ञा 'तत्' और 'इदम्' की
अपेक्षा रखती है। इसका यह तात्पर्य है कि प्रत्यभिज्ञा में 'तत्' शब्द और 'इदम्' शब्द दोनों की अपेक्षा होती है, इसलिए प्रत्यभिज्ञा का लक्षण इस प्रकार कहा जा सकता है कि 'तत्ता इदन्तावगाहिनी बुद्धिः प्रत्यभिज्ञा।' यहां 'तत्ता' पद से 'तत्' शब्द का और 'इदन्ता' पद से 'इदम्' शब्द का ग्रहण होता है। जिस ज्ञान में इन दोनों शब्दों का प्रयोग होता है वही ज्ञान प्रत्यभिज्ञा है। उदाहरण के लिए जैसे-'सोऽयम् देवदत्तः'-यह वही देवदत्त है, अथवा 'तदेवेदं नगरम'-यह वही नगर है, ये दोनों प्रयोग प्रत्यभिज्ञा में होते हैं। यह स्पष्ट है कि देवदत्त नाम का कोई पुरुष कभी जयपुर नगर में देखा गया। वही यदि वर्तमान में जोधपुर नगरी में दिखाई देता है तो वहां यह कहा जाता है कि यह वही देवदत्त है। यहां 'सः' 'तत्' शब्द से और 'अयम्' 'इदम्' शब्द से निष्पन्न रूप है। यहां 'सः' पद से पूर्वदृष्ट देवदत्त का स्मरण होता है और 'अयम्' पद से उसका प्रत्यक्ष होता है। इसलिए 'यह वही देवदत्त है' यह 'तत्ता इदन्तावगाहि' ज्ञान है। एक सः' पद से उसका स्मरण तथा 'अयम्' इस पद से उसका प्रत्यक्ष होता है-यही 'तत्ता इदन्तावगाहि' ज्ञान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org