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जैनन्यायपञ्चाशती तब प्रत्यक्ष प्रमाण से अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान का ग्रहण होता है। वहां पौद्गलिक इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं होती। वहां तो सर्वथा आवरणमुक्त केवल चेतनस्वरूप केवलज्ञान का ही आविर्भाव होता है, इसलिए यह प्रत्यक्षज्ञान केवलज्ञान' नाम से भी विख्यात है। इसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। जिस ज्ञान में इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होती है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये इसके चार भेद हैं।
__इसके विपरीत जिस ज्ञान में सहायता की अपेक्षा होती है वह ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है। ऐसा ज्ञान अविशद-अस्पष्ट होता है। इस ज्ञान की उपलब्धि में आत्मा और इन्द्रियां अपेक्षित रहती हैं, यहां यह ज्ञातव्य है।
(१०) सम्प्रति प्रत्यक्षप्रमाणस्य भेदद्वयमुपस्थापयति- . . अब प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेदों को प्रस्तुत कर रहे हैं
सांव्यवहारिकं चाद्यं द्वितीयं पारमार्थिकम्। ।
इन्द्रियानिन्द्रियाधीनमात्माधीनं क्रमेण च॥१०॥ प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार का होता है-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का स्रोत है-इन्द्रिय और मन। पारमार्थिक प्रत्यक्ष का स्रोत है-आत्मा। न्यायप्रकाशिका .. ... सांव्यवहारिकपारमार्थिकभेदेन प्रत्यक्षप्रमाणं द्विविधम् अस्ति। सम्यक् व्यवहारः-संव्यवहारः, तस्मै इदं सांव्यवहारिकम्, परमार्थज्ञापकं ज्ञानं पारमार्थिकमित्यनयोः निरुक्तिरियम्। अस्मिन् सांव्यवहारिके प्रत्यक्षे श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणां मध्ये यस्य कस्यापि इन्द्रियस्योपयोगो भवति। ततः आत्मनस्तथा ज्ञेयपदार्थस्य मध्ये इन्द्रियाणां व्यवधानेन यद्यपि आत्मव्यवहितं ज्ञानमिदं प्रत्यक्षपदवाच्यं भवितुं योग्यं नास्ति तथापि लोकदृष्ट्या इदं प्रत्यक्षवत् मन्यते। तस्मादिदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षमिति व्यवह्रियते।
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